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Bihar Election 2020 : नीति-नियती और नेता के नेतृत्व की कमी से लड़ती कांग्रेस

पहले चरण के चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. 2015 की तुलना में कांग्रेस के लिए चुनौती बड़ी है. 2015 की चुनावी जंग में कांग्रेस के लिए सुकून की बात यह थी कि प्रत्याशी से लेकर चुनावी रणनीति तक नीतीश और लालू अपनी जिम्मेदारी मान बैठे थे.

एक दिन का दौरा- नहीं डाला डेरा
एक दिन का दौरा- नहीं डाला डेरा
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Published : Oct 25, 2020, 5:35 PM IST

पटना: बिहार विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी नीति-नियति और नेतृत्व के अभाव में अपने जमीन और जनाधार को पकड़ ही नहीं पा रही है. हालत यह है कि पार्टी के नेता एक कोर को पकड़ते हैं, दूसरा छोर हाथ से निकल जा रहा है। बिहार में कमोबेश हर कांग्रेसी नेता इसी को लेकर जद्दोजहद कर रहा है। 2020 की सियासी लड़ाई में कांग्रेस की पूरी नीति ही राजद के पीछे खड़ी हो गई है. हालांकि, कांग्रेस की राजद के पीछे की सियासत कोई नई नहीं है.

1990 के बाद से ही बिहार में बदले राजनीतिक हालात ने कांग्रेस को पहले राजद के पीछे खड़ा किया, फिर पिछलग्गू की श्रेणी में लाकर रख दिया है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के नेता भी बिहार में राजद की ही नीतियों को गा रहे हैं कांग्रेस की अपनी पूरी नीति ही गायब हो गई है.

एक दिन का दौरा- नहीं डाला डेरा
एक दिन का दौरा- नहीं डाला डेरा

बिहार विधानसभा के 2020 के महासमर के पहले चरण के मतदान के लिए प्रचार अब थमने जा रहा है. बिहार कांग्रेस 2020 की लड़ाई के पहले चरण की 71 सीटों में से 21 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि 2015 की बात करें तो कांग्रेस जदयू और राजद के साथ रहते पहले चरण में कांग्रेस को 13 सीटें मिली थी. इनमें से 9 पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी. बदले राजनीतिक हालात में पहले चरण की जिन सीटों पर मतदान होगा. उसमें कांग्रेस की दावेदारी और सीट में हिस्सेदारी भी बढ़ गई, लेकिन जो जमीन की तैयारी है पिछले बार की तुलना में घट गई.

नीतीश के विकास मॉडल के बूते कांग्रेस ने भी भाजपा को जातीय रंग का गेरूआ चोला ओढ़ा कर सोशल इंजीनियरिंग के बदौलत सीटों पर कब्जा जमा लिया। 2020 की तैयारी की चुनौती ने कांग्रेस के प्रदेश इकाई के नेताओं के माथे पर बल डाल दिया है और केन्द्रीय नेतृत्व ने चुनाव जीतने के लिए जिस बल को लगाना चाहिए उतना भार चुनाव पर दिया ही नहीं.

नहीं रही बड़े नेताओं की निगहबानी
पहले चरण के चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. 2015 की तुलना में कांग्रेस के लिए चुनौती बड़ी है. 2015 की चुनावी जंग में कांग्रेस के लिए सुकून की बात यह थी कि प्रत्याशी से लेकर चुनावी रणनीति तक नीतीश और लालू अपनी जिम्मेदारी मान बैठे थे. कांग्रेस के वार रूम में जो चीजें चलती थी, उसकी नीतियां भी नीतीश कुमार बनाते थे. यहां तक कि नीतीश कुमार ने जिन्हें प्रत्याशी चुना, उनके नाम को कांग्रेस नकार भी नहीं पाई थी. कांग्रेस ने नीतीश पर भरोसा किया तो परिणाम यह रहे कि कांग्रेस ने 2015 के चुनाव में 27 सीटें जीती, जो 1989 के बाद का कांग्रेस का सबसे उम्दा प्रदर्शन था.

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव (कहलगांव चुनावी सभा)
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव (कहलगांव चुनावी सभा)

इस बार पहले चरण में ही कांग्रेस की बहुत सारी नीतियां दरकती दिख रही हैं और पहले चरण के लिए जितनी तैयारियां कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को करना था, वह नहीं हो सकी. कांग्रेस के उम्मीदवारों को उम्मीद थी कि पहले चरण के अधिकांश सीटों पर कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का प्रचार और सहयोग मिलेगा. लेकिन ऐसा नहीं हो सका.

सोनिया-प्रियंका और राहुल ने भी नहीं दिया ध्यान
बिहार में पहले चरण के चुनाव के मतदान में अब कुछ घंटे बाकी हैं. अगले कुछ घंटों के बाद नेताओं के वादों का भोपूं बंद हो जाएगा. अब बारी जनता की है जो 28 अक्टूबर को 71 सीटों पर प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला ईवीएम में कैद करेगी. कांग्रेस ने पहले चरण के लिए उम्मीदवारी तो बड़ी खड़ी कर दी. लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवारों को जो उम्मीदें थीं, उस पर शीर्ष नेतृत्व खरा नहीं उतर सका.

चुनावी रैलियों को ही मान लें तो बिहार में कांग्रेस ने अपनी पूरी जिम्मेदारी तेजस्वी यादव की नीति और उनकी तैयारी पर छोड़ दी है. 2015 की चुनाव की करें तो जब कांग्रेस राजद और जदयू साथ चुनाव लड़ रही थी, तो कांग्रेस के दिग्गज महारथियों का भी दौरा बिहार में खूब हुआ था. सोनिया गांधी ने छह चुनावी रैलियां की थी जबकि राहुल गांधी ने भी चुनावी रैलियों के माध्यम से जनता के बीच अपनी बात रखने का काम किया था. लेकिन इस बार सभी शीर्ष नेता बिहार के चुनाव में नहीं दिख रहे हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश सिंह बघेल को छोड़ दिया जाए तो जिन बड़े नेताओं को बार चुनावी प्रचार में आना था वह नहीं आए.

प्रदेश नेतृत्व भी मजबूत नहीं
वर्तमान में बिहार की जो कार्यकारिणी है वह भी 2015 जितनी मजबूत नहीं है कोआर्डिनेशन कमिटी से लेकर अन्य सभी कोषांग में बहुत सारे सवाल हैं। कांग्रेस और राजद गठबंधन के बीच भी कई मुददे हैं । 2015 में अशोक चौधरी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे जो 2020 में जदयू के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष हैं अशोक चौधरी ने पार्टी को मजबूती के साथ खड़ा किया था और कांग्रेस को एक दिशा भी दी थी लेकिन अगर इस बार कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की बात करें तो वे पूरे विधानसभा चुनाव में के दौरान हो रहे अपने लिए विधान परिषद के चुनाव में ही अपना ज्यादा समय गवा चुके हैं।

बिहार चुनाव प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल ने जिम्मेदारी तो जरूर उठा रखी है रणदीप सिंह सुरजेवाला ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की भी जिम्मेदारी उठा रखी है लेकिन जो जवाबदेही जमीन पर उठानी थी उसको लेकर के कांग्रेस के उम्मीदवार ही यह कहते हैं उनके लिए शीर्ष नेतृत्व से जो उम्मीद थी उन नहीं उतर पाई राजद कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए उतना ही कर रही है जिससे गठबंधन की मर्यादा बनी रहे।

कांग्रेस लंबे राजद के साथ फिर उस चुनावी लड़ाई में थी जो 2020 के बदलते राजनीतिक समीकरण का एक मजबूत अध्याय लिख सकती थी लेकिन नेतृत्व की कमजोरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष की बीमारी, बड़े नेताओं के बीच विभेद, पार्टी के भीतर चल रहा मनमुटाव, जमीन और जनाधार से भटक चुका राज्य का नेतृत्व कई मुददो से पार्टी जूझ रही है, जिसमें अपने ही उम्मीदवारों के लिए बहुत कुछ कर पाने की स्थिति में कांग्रेस नहीं है।

बिगड़े हालात तो यहां तक पहुंच गए हैं कि अनुशासन की कमी के कारण सदाकत आश्रम में इनकम टैक्स की रेड तक हो रही है और गाड़ियों से अवैध रूप का पैसा भी जप्त किया जा रहा है. कांग्रेस भ्रष्टाचार पर चाहे जो बात करें आरोपों में बीजेपी को चाहे जितना घेरे लेकिन जिस तरीके से कांग्रेस के लोग कानूनी पचड़े में घिर जाते हैं. वह कांग्रेस के लिए ही बहुत बेहतर नहीं होता है अब देखना यही होगा कि पहले चरण में कांग्रेस जिस सिर्फ नेतृत्व के मार्गदर्शन की कमी को महसूस किया है दूसरे और तीसरे चरण में कांग्रेसी से कैसे पाठ पाती है.

पटना: बिहार विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी नीति-नियति और नेतृत्व के अभाव में अपने जमीन और जनाधार को पकड़ ही नहीं पा रही है. हालत यह है कि पार्टी के नेता एक कोर को पकड़ते हैं, दूसरा छोर हाथ से निकल जा रहा है। बिहार में कमोबेश हर कांग्रेसी नेता इसी को लेकर जद्दोजहद कर रहा है। 2020 की सियासी लड़ाई में कांग्रेस की पूरी नीति ही राजद के पीछे खड़ी हो गई है. हालांकि, कांग्रेस की राजद के पीछे की सियासत कोई नई नहीं है.

1990 के बाद से ही बिहार में बदले राजनीतिक हालात ने कांग्रेस को पहले राजद के पीछे खड़ा किया, फिर पिछलग्गू की श्रेणी में लाकर रख दिया है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के नेता भी बिहार में राजद की ही नीतियों को गा रहे हैं कांग्रेस की अपनी पूरी नीति ही गायब हो गई है.

एक दिन का दौरा- नहीं डाला डेरा
एक दिन का दौरा- नहीं डाला डेरा

बिहार विधानसभा के 2020 के महासमर के पहले चरण के मतदान के लिए प्रचार अब थमने जा रहा है. बिहार कांग्रेस 2020 की लड़ाई के पहले चरण की 71 सीटों में से 21 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि 2015 की बात करें तो कांग्रेस जदयू और राजद के साथ रहते पहले चरण में कांग्रेस को 13 सीटें मिली थी. इनमें से 9 पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी. बदले राजनीतिक हालात में पहले चरण की जिन सीटों पर मतदान होगा. उसमें कांग्रेस की दावेदारी और सीट में हिस्सेदारी भी बढ़ गई, लेकिन जो जमीन की तैयारी है पिछले बार की तुलना में घट गई.

नीतीश के विकास मॉडल के बूते कांग्रेस ने भी भाजपा को जातीय रंग का गेरूआ चोला ओढ़ा कर सोशल इंजीनियरिंग के बदौलत सीटों पर कब्जा जमा लिया। 2020 की तैयारी की चुनौती ने कांग्रेस के प्रदेश इकाई के नेताओं के माथे पर बल डाल दिया है और केन्द्रीय नेतृत्व ने चुनाव जीतने के लिए जिस बल को लगाना चाहिए उतना भार चुनाव पर दिया ही नहीं.

नहीं रही बड़े नेताओं की निगहबानी
पहले चरण के चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. 2015 की तुलना में कांग्रेस के लिए चुनौती बड़ी है. 2015 की चुनावी जंग में कांग्रेस के लिए सुकून की बात यह थी कि प्रत्याशी से लेकर चुनावी रणनीति तक नीतीश और लालू अपनी जिम्मेदारी मान बैठे थे. कांग्रेस के वार रूम में जो चीजें चलती थी, उसकी नीतियां भी नीतीश कुमार बनाते थे. यहां तक कि नीतीश कुमार ने जिन्हें प्रत्याशी चुना, उनके नाम को कांग्रेस नकार भी नहीं पाई थी. कांग्रेस ने नीतीश पर भरोसा किया तो परिणाम यह रहे कि कांग्रेस ने 2015 के चुनाव में 27 सीटें जीती, जो 1989 के बाद का कांग्रेस का सबसे उम्दा प्रदर्शन था.

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव (कहलगांव चुनावी सभा)
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव (कहलगांव चुनावी सभा)

इस बार पहले चरण में ही कांग्रेस की बहुत सारी नीतियां दरकती दिख रही हैं और पहले चरण के लिए जितनी तैयारियां कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को करना था, वह नहीं हो सकी. कांग्रेस के उम्मीदवारों को उम्मीद थी कि पहले चरण के अधिकांश सीटों पर कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का प्रचार और सहयोग मिलेगा. लेकिन ऐसा नहीं हो सका.

सोनिया-प्रियंका और राहुल ने भी नहीं दिया ध्यान
बिहार में पहले चरण के चुनाव के मतदान में अब कुछ घंटे बाकी हैं. अगले कुछ घंटों के बाद नेताओं के वादों का भोपूं बंद हो जाएगा. अब बारी जनता की है जो 28 अक्टूबर को 71 सीटों पर प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला ईवीएम में कैद करेगी. कांग्रेस ने पहले चरण के लिए उम्मीदवारी तो बड़ी खड़ी कर दी. लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवारों को जो उम्मीदें थीं, उस पर शीर्ष नेतृत्व खरा नहीं उतर सका.

चुनावी रैलियों को ही मान लें तो बिहार में कांग्रेस ने अपनी पूरी जिम्मेदारी तेजस्वी यादव की नीति और उनकी तैयारी पर छोड़ दी है. 2015 की चुनाव की करें तो जब कांग्रेस राजद और जदयू साथ चुनाव लड़ रही थी, तो कांग्रेस के दिग्गज महारथियों का भी दौरा बिहार में खूब हुआ था. सोनिया गांधी ने छह चुनावी रैलियां की थी जबकि राहुल गांधी ने भी चुनावी रैलियों के माध्यम से जनता के बीच अपनी बात रखने का काम किया था. लेकिन इस बार सभी शीर्ष नेता बिहार के चुनाव में नहीं दिख रहे हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश सिंह बघेल को छोड़ दिया जाए तो जिन बड़े नेताओं को बार चुनावी प्रचार में आना था वह नहीं आए.

प्रदेश नेतृत्व भी मजबूत नहीं
वर्तमान में बिहार की जो कार्यकारिणी है वह भी 2015 जितनी मजबूत नहीं है कोआर्डिनेशन कमिटी से लेकर अन्य सभी कोषांग में बहुत सारे सवाल हैं। कांग्रेस और राजद गठबंधन के बीच भी कई मुददे हैं । 2015 में अशोक चौधरी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे जो 2020 में जदयू के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष हैं अशोक चौधरी ने पार्टी को मजबूती के साथ खड़ा किया था और कांग्रेस को एक दिशा भी दी थी लेकिन अगर इस बार कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की बात करें तो वे पूरे विधानसभा चुनाव में के दौरान हो रहे अपने लिए विधान परिषद के चुनाव में ही अपना ज्यादा समय गवा चुके हैं।

बिहार चुनाव प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल ने जिम्मेदारी तो जरूर उठा रखी है रणदीप सिंह सुरजेवाला ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की भी जिम्मेदारी उठा रखी है लेकिन जो जवाबदेही जमीन पर उठानी थी उसको लेकर के कांग्रेस के उम्मीदवार ही यह कहते हैं उनके लिए शीर्ष नेतृत्व से जो उम्मीद थी उन नहीं उतर पाई राजद कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए उतना ही कर रही है जिससे गठबंधन की मर्यादा बनी रहे।

कांग्रेस लंबे राजद के साथ फिर उस चुनावी लड़ाई में थी जो 2020 के बदलते राजनीतिक समीकरण का एक मजबूत अध्याय लिख सकती थी लेकिन नेतृत्व की कमजोरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष की बीमारी, बड़े नेताओं के बीच विभेद, पार्टी के भीतर चल रहा मनमुटाव, जमीन और जनाधार से भटक चुका राज्य का नेतृत्व कई मुददो से पार्टी जूझ रही है, जिसमें अपने ही उम्मीदवारों के लिए बहुत कुछ कर पाने की स्थिति में कांग्रेस नहीं है।

बिगड़े हालात तो यहां तक पहुंच गए हैं कि अनुशासन की कमी के कारण सदाकत आश्रम में इनकम टैक्स की रेड तक हो रही है और गाड़ियों से अवैध रूप का पैसा भी जप्त किया जा रहा है. कांग्रेस भ्रष्टाचार पर चाहे जो बात करें आरोपों में बीजेपी को चाहे जितना घेरे लेकिन जिस तरीके से कांग्रेस के लोग कानूनी पचड़े में घिर जाते हैं. वह कांग्रेस के लिए ही बहुत बेहतर नहीं होता है अब देखना यही होगा कि पहले चरण में कांग्रेस जिस सिर्फ नेतृत्व के मार्गदर्शन की कमी को महसूस किया है दूसरे और तीसरे चरण में कांग्रेसी से कैसे पाठ पाती है.

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