पटना: कभी सड़क बिजली और सुशासन के मुद्दे पर बिहार में चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दल इस बार रोजगार के मुद्दे पर ज्यादा मुखर हैं. 10 लाख नौकरी बनाम 19 लाख रोजगार बिहार चुनाव में इस बार सबकी जुबां पर है. लेकिन अब भी सभी मुद्दों पर भारी है. बिहार की जातीय राजनीति, जिसके आधार पर टिकट बांटे जाते हैं, जिसके आधार पर लोगों से वोट मांगा जाता है और कहीं ना कहीं एक बार फिर विभिन्न दलों के चुनाव प्रचार ने जातीय राजनीति का मुद्दा गर्मा दिया है.
जातियों के गुणा गणित ने एक बार फिर बिहार में तमाम चुनाव भी मुद्दों को पीछे छोड़ दिया है. हालांकि इस बार राष्ट्रीय जनता दल ने जाति से ऊपर उठकर रोजगार के मुद्दे पर तमाम लोगों को वोट करने की अपील की. रोजगार के मुद्दे को लेकर युवा वर्ग को तेजस्वी यादव के युवा चेहरे और राजद के 10 लाख रोजगार के मुद्दे पर लुभाने की कोशिश हो रही है. लेकिन इस मामले में खुद को बिछड़ता देख जदयू ने एक बार फिर आरक्षण का मुद्दा उछाल दिया है.
राजद की राय
राजद का आरोप है कि इस मुद्दे पर जब जदयू बुरी तरह पिछड़ता दिखा तो नीतीश कुमार ने एक बार फिर आरक्षण के मुद्दे को उछाल कर चुनावी फिजा अपने पक्ष में करने की कोशिश की है. नीतीश कुमार ने कहा कि अगर दोबारा सरकार बनी तो आबादी के हिसाब से आरक्षण देंगे. हालांकि यह मांग राष्ट्रीय जनता दल पहले से करता रहा है लेकिन इस बार रोजगार के मुद्दे पर ही राजद चुनाव में उतरा जिसका बड़ा फायदा पहले चरण के चुनाव में दिखा.
जाति किस तरह हो गई महत्वपूर्ण?
इस चुनाव में पहला वाक्य तब सामने आया जब तेजस्वी यादव ने रोहतास में एक चुनावी सभा के दौरान गरीबों की तुलना बाबू साहब से कर दी. उन्होंने जाति तो नहीं कहा लेकिन उनके बयान से खासा बवाल हुआ. जिसके बाद राजद को सफाई भी देनी पड़ी. उसके बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आबादी के हिसाब से आरक्षण का मुद्दा उछाल दिया.
मौजूदा समीकरण का हाल
दरअसल बिहार में कुछ खास जातियों और राजनीतिक दलों का उनके प्रति लगाव चुनाव में खास असर डालता रहा है. पिछले तीन दशक की राजनीति पर गौर करें तो राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति पूरी तरह मुस्लिम यादव वोट बैंक पर निर्भर रही है. दूसरी तरफ अगड़ी जातियों का झुकाव कहीं ना कहीं बीजेपी और कुछ हद तक कांग्रेस के प्रति रहा है. इनके अलावा जो अन्य जातियां हैं चाहे वह मुकेश साहनी की पार्टी हो, जीतन राम मांझी की पार्टी हो, लोजपा या उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी, ये सभी पूरी तरह विशेष जाति से जुड़े वोट बैंक का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती हैं. वही अति पिछड़ों का नीतीश कुमार के प्रति लगाव सर्वविदित है
दूसरे चरण में 94 सीटों पर चुनाव
बता दें कि दूसरे चरण में जिन 94 सीटों पर चुनाव हो रहे हैं. उनमें भी जातियों का आधार राजनीतिक दलों के लिए जीत या हार की बड़ी वजह बन सकता है. दूसरे चरण में पटना की 9 विधानसभा सीटों पर चुनाव हो रहे हैं. इनमें कुम्हरार, बांकीपुर,, पटना साहिब, फतुहा, दानापुर, मनेर, फुलवारी शरीफ, दीघा और बख्तियारपुर शामिल हैं. चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक इन 9 विधानसभा क्षेत्रों में करीब 32 लाख वोटर हैं.
क्या है मतदाताओं का समीकरण
इनमें यादव वोटर्स करीब 6.59 लाख हैं। यादव वोटर्स सबसे ज्यादा मनेर में हैं. इसके अलावा दीघा और बख्तियारपुर के साथ दानापुर, फुलवारी शरीफ और फतुहा में भी इनकी संख्या बहुतायत में है. पटना के इन 9 विधानसभा सीटों पर दूसरी बड़ी संख्या अति पिछड़ों की है. इनके अलावा करीब ढाई लाख मुस्लिम और करीब सात लाख सवर्ण मतदाता हैं. इन आंकड़ों से अनुमान लगाया जा रहा है कि पटना में दूसरे चरण में 9 विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनाव में विशेष रूप से यादव, मुस्लिम,अति पिछड़ा और सवर्ण मतदाताओं की पसंद नापसंद से हार जीत का फैसला होगा.