पटना: बिहार में नए वर्ष की शुरूआत के साथ ही जातीय गणना की तैयारी (Bihar Caste Census 2023) शुरू हो गई है. पहले चरण में आवासीय मकानों की गिनती होनी है. इसकी शुरूआत पटना के वीआईपी इलाकों से होनी है, जहां अधिकारियों और विधायकों, मंत्रियों के आवास हैं. 7 जनवरी से प्रारंभ होने वाले जातीय गणना (Bihar Caste Census Starts From January 7) के पहले चरण में प्रत्येक मकान में नंबर डाला जाएगा. इसके आलावा घर के मुखिया का नाम और घर के सदस्यों का नाम लिखा जाएगा. 21 जनवरी तक आवासीय मकानों की गिनती होगी.
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बिहार में 7 जनवरी से जातीय जनगणना : बताया जाता है कि पटना जिले में कुल 45 प्रक्षेत्र बने हुए हैं. छह गणक खंड पर एक पर्यवेक्षक तैनात किए गए है, यानी 2116 पर्यवेक्षक प्रतिनियुक्ति किए गए हैं. सभी गणना कर्मियों को इसके लिए प्रशिक्षण दिया गया है. पटना में 23 प्रखंड, एक नगर निगम, 12 नगर परिषद, चार नगर पंचायत और एक छावनी परिषद है. पटना जिले में 4000 से अधिक गणना खंड जातीय जनगणना के लिए बनाए जाएंगे. सरकार की ओर से सामान्य प्रशासन विभाग के दिशा निर्देश मिलने के बाद पटना में जातीय गणना शुरू हो जाएगा.
इन कागजातों को रखें दुरुस्त : पहले चरण में मकानों की गिनती पूरी होने के बाद दूसरे चरण में अप्रैल महिने में प्रत्येक मकानों में रहने वाले लोगों की सम्पूर्ण जानकारी भरी जाएगी. इसके तहत जाति, पेशा सहित 26 कॉलम का फॉर्म भरा जाएगा. जाति की गणना डिजिटल माध्यम से भी की जाएगी और इसमें एंड्राइड फोन का प्रयोग होगा. फोन में मौजूद एक खास ऐप से हर वर्ग, हर घर के लोगों का पूरा विवरण भरा जाएगा. जिसमें जाति और उपजाति का अलग से कॉलम रहेगा.
204 जातियों की गणना होगी: पटना जिले में जिन 204 जातियों की गणना की जाएगी उसमें सबसे अधिक अति अत्यंत पिछड़ा वर्ग- 113, एसटी- 32, पिछड़ा वर्ग- 30, एससी- 22 और सामान्य वर्ग की 7 जातियां शामिल हैं. जनजातियों में नौ उपजातियां भी हैं. उसी प्रकार भूमिज जो अनुसूचित जाति है, सरकारी दस्तावेजों के अनुसार यह मुंगेर, भागलपुर व पूर्णिया जिले में ही अब तक दर्ज है.
जातीय जनगणना से दिक्कत क्या है? : बता दें कि पिछले साल जातीय गणना को लेकर बिहार की सियासत कुछ महीने गर्म थी. बिहार में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर देश में जातीय गणना कराने की मांग की थी. केंद्र ने तब कहा था कि फिलहाल जातीय गणना संभव नहीं है. इसके बाद राज्य सरकार ने अपने खर्च पर जातीय गणना कराने का निर्णय लिया. पारंपरिक रूप से अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की जनगणना अलग से होती है. यानी जातीय जनगणना से यह तो पता चलेगा कि SC और ST कितने हैं, पर OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) या अन्य जातियों की वास्तविक स्थिति सामने नहीं आएगी. बिहार, महाराष्ट्र, ओडिशा जैसे राज्य जब जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं तो केंद्र सरकार इसे क्यों नहीं करना चाहती है?. आइए समझते हैं इन सवालों के जवाब.
आखिरी बार कब हुई थी जातिगत जनगणना: पिछली जाति आधारित जनगणना 1931 में की गई थी, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया. उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश भी भारत का हिस्सा थे. तब देश की आबादी 30 करोड़ के करीब थी अब तक उसी आधार पर यह अनुमान लगाया जाता रहा है कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं.
क्या कहते है मंडल कमीशन के आंकड़ें : मंडल कमीशन के आंकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. आज भी उसी आधार पर देश में आरक्षण की व्यवस्था है. जिसके तहत ओबीसी को 27 फीसदी, अनुसूचित जाति को 15 फीसदी तो अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसदी आरक्षण मिलता है. ऐसे में ओबीसी नेता जातिगत जनगणना की मांग करते रहे हैं, जिसके चलते साल 2011 में सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस सर्वे (SECC) आधारित डेटा जुटाया था. इसमें करीब 4 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए थे, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया है.
क्या कहते है एक्सपर्ट: वहीं, जानकारों का मानना है कि भारत में ओबीसी आबादी कितनी है, इसका कोई ठोस प्रमाण फिलहाल नहीं है. हालांकि मंडल कमीशन ने साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था. इसके अलावा अलग-अलग राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आंकड़े को अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है.
क्या राज्य के आंकड़ों की वैधता होगी? : हालांकि, केंद्र ने साफ कर दिया है कि राज्य चाहे तो अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करा सकते हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या राज्य के आंकड़ों की क्या वैधता होगी? इस पर रिटायर्ड प्रोफेसर डॉक्टर डी. एम. दिवाकर का मानना है कि जातिगत जनगणना की वैधता राज्यों के लिए हो सकती है. राज्य विकास योजनाओं में आंकड़े का उपयोग कर सकती है. राज्य कर अपने स्तर से जनगणना कराती है तो केंद्र भले ही ना माने लेकिन आंकड़ा राज्य के लिए उपयोगी हो सकता है. बिहार में अभी पमरिया नट और ट्रांसजेंडर की आबादी कितनी है यह किसी को पता नहीं है.
जातियों की अलग से गणना की जरूरत क्यों हैं? : जाति जनगणना को लेकर एक अहम सवाल यह भी खड़ा हुआ है कि आखिर जातियों की अलग से गणना की जरूरत ही क्यों हैं? इसका जवाब देते हुए, ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट के प्राध्यापक डॉ बीएन प्रसाद कहते हैं कि जातिगत जनगणना इसलिए जरूरी है कि कल्याणकारी योजनाओं और शिक्षा के क्षेत्र में सरकार योजना बना सकेगी अगर जनगणना हुई तो यह पता चल पाएगा कि कौन सी जाति की संख्या कितनी है और उसको कितनी हिस्सेदारी दी जाए. साथ ही, जातिगत जनगणना से सामाजिक विकास पर प्रभाव पड़ेगा तो दूसरी तरफ इसके दुरुपयोग भी हो सकते हैं. संपन्न वर्ग आंकड़ों का उपयोग अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने में कर सकते हैं.
'पार्टियों के पास बहुत ज्यादा मुद्दे नहीं' : राजनीति के जानकार अजय कुमार कहते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार की राजनीति जाति आधारित होती है. राजनीति में कई विवादास्पद मुद्दे जैसे राम मंदिर, जम्मू कश्मीर में धारा 370 का समाप्त होना, तीन तलाक कानून सहित कई मुद्दों की समाप्ति के बाद समाजवादी विचारधारा के समर्थन वाली पार्टियों के पास बहुत ज्यादा मुद्दे नहीं बचे हैं.
''बीजेपी की पहचान सवर्ण समाज पार्टी के रूप में रही है. ऐसे में अन्य दल भी प्रतीकात्मक रूप से ही सही बड़े पदों पर सवर्ण समाज से आने वाले नेताओं को बैठाकर यह संदेश देने की कोशिश में जुटी है कि उनके लिए सवर्ण समाज से आने वाले लोग भी महत्वपूर्ण हैं.'' - अजय कुमार, पॉलिटिकल एक्सपर्ट