पटनाः 2020 के लिए सत्ता की हुकूमत की जंग में लोकतंत्र को जिताने के लिए पहली जन आहुती हो चुकी है. दूसरे समर का रण वादों और दांवों की दहलीज लांघ चुका है. अब दूसरे चरण में जनमत देने की बारी जनता की है. जनता बिहार के विकास को मान मेंं रखे हुए है. बिहार का विकास हो यही आस सभी के वोट का आधार भी है.
बिहार मेंं सरकार बनाने के लिए वादे और दांवो की हर चाल चली जा रही है. विकास के मुद्दे पर विश्वास की सियासत को भेजने में हर दल लगा हुआ है. सीएम नीतीश कुमार ने बहुमत के बाद सीएम बनाने को लेकर जो बात कही है, उसने बिहार की राजनीति में नई चर्चा को जगह दे दी है.
नीतीश कुमार ने अपने बयान में कहा है, 'बिहार में बहुमत आने पर सीएम बनाने का वादा भाजपा ने किया है, सियासत के इस रंग को नीतीश कुमार ने राजनीतिक करार का हवाला तो दे दिया. लेकिन विश्वास के पैमाने पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. आखिर नीतीश कुमार को इस तरह के बयान की जरूरत क्यों आ गयी.'
बिहार में भाजपा का करार
1989 से पहले बिहार की सियासत कें सभी राजनीतिक दल कांग्रेस से लड़ते रहे. जनता दल की सरकार ने कांग्रेस को झटका दिया. बिहार की सियासत में संघ की दखल ने सरकार को बनवाने में मदद की थी और बीजेपी के लालमुनी चौबे जैसे नेताओं ने सियासत में उस समय जनता दल से जरूरत का गठबंधन भी किया था.
1990 में मंडल कमीशन के बाद की बदली राजनीति ने बिहार मेंं नई राजनीति को जगह दी. लालू यादव ने मजबूत राजनीति की जमीन को जाति के आधार पर पकड़ा तो भाजपा ने भगवा रंग को हवा देकर रथ तक की सियासत कर डाली. बिहार से भाजपा का करार तक जमीनी रंग लेने लगा, जब बिहार में जंगलराज जैसे शब्दों को जगह मिलने लगी.
समता पार्टी जार्ज फर्नाडीज और शरद यादव जैसे नेताओं के साथ ने बीजेपी को बिहर में सियासी करार की राजनीति को रंंग दिया. सियासत में हालात बदले तो नीतीश कुमार ही कर्ताधर्ता बन गए और बीजेपी नीतीश के लिए सियासी करार का संकल्प मंत्र.
2005 और 2010 का जनमत और बहुमत का करार
2005 के फरवरी में हुए विधानसभा के चुनाव में जो जनमत मिला, वह राजद के लिए सरकार चलाने की इतनी शक्ति नहीं दे सका कि वह लंबे समय तक टिकती. 5 महीने में ही राजद की सरकार गिर गयी और बिहार 2005 के अक्टूबर में फिर से विधानसभा चुनाव में चला गया.
जंगलराज के नाम से छटपटा रहे बिहार को नीतीश कुमार सुशासन के नाम पर नई दिशा के साथ गढ़ रहे थे और इस चुनाव में नीतीश के नाम पर बिहार की जनता ने करार किया और गद्दी नीतीश कुमार को सौंप दी.
2010 के विधान सभा चुनाव में नीतीश कुमार के नाम पर बिहार की जनता और भाजपा का मजबूत करार नीतीश कुमार के साथ रहा. जनता के जनमत ने नीतीश के नाम पर विपक्ष का सूपड़ा ही साफ कर दिया. नीतीश की पार्टी को 115 सीटें मिली जो बहुमत से सिर्फ 7 कम थी. सियासत में साथ होने के करार के टकराव का आधार इसी सीट संख्या ने शुरू की और जिस अवधि के लिए जनता ने अपना जनमत दिया था वह समय से पहले ही दम तोड. गया.
2013 से टकराव और 2014 में टूट का करार
बिहार की राजनीति मेंं सियासी करार का विवाद भाजपा और जदयू के बीच 2013 मेंं जगह बनाने लगा. 2013 में राजगीर में भाजपा की हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और वहां से 2014 के लिए नमो नमो का नारा उठाकर बिहार विधान सभा पहुंचे नीतीश सरकार के दो मंत्री जो आज केन्द्र सरकार में भी मंत्री हैं. गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे ने केन्द्र तक जदयू के करार की बात की तो बिहार में भाजपा और जदयू के बीच चल रहे करार ने सियासी किनारे का राग गाना शुरू कर दिया.
बिहार की सियासत में महत्वाकांक्षा की राजनीति ने सम्मान भोज के अभिनंदन को भी राजनीतिक निंदा का विषय बना दिया. 2014 में जदयू और भाजपा ने अपनी डगर अलग की तो सियासत में करार को लेकर सवाल उठा तो सियासत दान भरोसे और विश्वास पर अपनी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की कहानी कहने में लग गए.
2014 में विश्वास पर भटकती रही बिहार की राजनीति
बिहार ने 2005 में विकास के जिस बदलाव की राजनीति को अपनी नई किस्मत का खेवनहार माना था, वह 2014 तक जाते जाते बिखर गयी. भाजपा जदयू के हर समझौते की सियासत राजनीतिक महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ गयी. बिहार को अपनी राजनीतिक विरासत से बनाने का दावा करने के बीच एक दूसरी लड़ाई शुरू हो गयी. 2014 में नीतीश कुमार ने बिहार में उस करार का साथ छोड़ दिया, जो बहुमत आने पर भाजपा और जदयू के बीच हुई थी.
2010 के जनाधार ने भाजपा और जदयू को जीत दी और करार ने नीतीश कुमार को सीएम की कुर्सी. 2014 में साथ होने के विभेद की सियासत ने नीतीश से भाजपा को अलग किया और जीतन राम मांझी को चल रहे बहुमत के करार पर सीएम बना दिया.
2014 में मांझी नीतीश के कारार से नाराज हो गए. भाजपा के साथ ने मांझी को नीतीश से बगावत करने की राह दी और बिहार की सियासत में फिर करार पर नया विवाद खड़ा हो गया. जिस भरोसे पर नीतीश ने मांझी को गद्दी दी थी, वह टूटा गया. मांझाी को गद्दी से उतार कर पूराने करार को तोड़ दिया गया. 2015 में नीतीश कुमार ने 2010 वाले जनाधार पर ही फिर से मुख्यमंत्री बने और 2015 के विधानासभा चुनाव तक नए राजनीतिक करार का आधार खड़ा कर दिया.
2015 सत्ता के लिए नया करार
बिहार विधान सभा चुनाव 2015 ने बिहारा की सियासत में नए करार के साथ जनमत का अधार खड़ा करने में जुटा. नीतीश कुमार और लालू यादव ने हाथ मिला लिया. बिहार की सियासत इस बात को लेकर फिर से अपने हर समझौते पर जीत हार का मंथन करने लगी कि नीतीश के भरोसे पर बदलाव की सियासत ने जगह ली थी. 2015 की नीतीश और लालू के सोशल इंजीनियरिंग ने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी. राजद बड़ी पार्टी हुई लेकिन नीतीश की सीएम बने. यह भी जनमत के समझौते का करार ही था कि जीत के बाद सीएम नीतीश ही होंगे.
हालंकि 2017 तक ही यह गठबंधन रह पाया. नीतीश के साथ लालू के गठबंधन में गांठ पड़ गयी और नीतीश लालू से अलग हो गए, 27 जुलाई 2017 को नीतीश कुमार ने बिहार के उस बहुमत से अलग जाकर सीएम पद की शपथ ली. बिहार में बहुमत अपने इस आधार की समीक्षा कर रही है कि सियासत में किस करार को सही माना गया, 2010 में उस जनमत के बहुमत को 2014 में तोड़ा गया जो नीतीश कुमार को मिला था.
27 जुलाई 2017 को नीतीश ने फिर से एक ऐसा शपथ लिया जिसने 2015 के लिए जो बहुमत दिया था उसके विरोध का रहा है. 27 जुलाई 2017 को नीतीश कुमार ने राजद का साथ छोड. भाजपा के साथ जो करार किया वह उस बहुमत के साथ नहीं था. जो 2015 की सियासी रणनीति थी. अब 2020 की सियासत में इन्ही सवालों ने जनता के मन पर बल डाल दिया है.
2020 के बहुमत का नया करार
बिहार की सियासत में 2020 की सरकार की हुकूमत की बागडोर सभंलने का लेकर जो करार होना है, उसमें राजद के तरफ से तस्वीर बिल्कुल साफ है. बहुमत आया तो तेजस्वी सीएम होेंगे. नीतीश कुमार की बहुमत के करार पर सीएम की कुर्सी का जो सवाल उठा है, वह नीतीश के मन के उस विभेद के साथ है जो 2013 की सियासत के बाद राजनीतिक विभेद के साथ रहा है. बिहार की राजनीति मेंं यह सवाल उठ रहा है कि जिस सियासी करार को लेकर सरकार और समर्थन की राजनीति हुई उसने चुनवी वैतरणी पर ही नहीं की.
नीतीश को सता रहा है राजनीतिक सुचिता का डर
बिहार में 2020 की सियासत में नीतीश कुमार बोलने में चाहे जो बोले लेकिन उन्हें उनकी राजनीतिक नैतिकता के सुचिता का डर सता रहा है. 2015 में चुनाव के दौरान नीतीश कुमार ने जदयू प्रदेश कार्यालय में कहा था कि भाजापा ने आरएसएस की सियासत को अपना एजेंडा बना लिया है. जो हमारे समझौते के अनुसार नहीं था. यह राजनीति अटल जी नहीं चाहते थे.
2017 में जब लालू यादव की पार्टी से नीतीश अलग हुए तो कहा कि जो लोग मेरी सरकार में हैं, उनको यह जवाब देना चाहिए की सीबीआई उन्हें क्यों खोज रही है. अब जबकि 2020 के सिंहासन के महासंग्रमा का दूसरा दौर नेताओं के किस्मत का फैसला ईवीएम में बंद करने जा रही है तो बहुमत पर सीएम के करार पर नीतीश कुमार की बात उनकी राजनीतिक सुचिता के डर का मामला बनता दिख रहा है. क्योंकि जिस करार को वो अपनी राजनीति जिद से जोड़ते तोड़त रहे हैं, उसकी नई बानगी अब उन्हें उनकी राजनीतिक सुचिता और समझौते वाली सियासत को लेकर कई सवाल खड़ा कर रही है. बहरहाल इंतजार बहुमत का कजीये.