पटना: आज विश्व ऑटिज्म अवेयरनेस दिवस (World Autism Awareness Day 2023) मनाया जा रहा है. ऐसे में पटना के विभिन्न ऑटिज्म थेरेपी सेंटर के ऑक्यूपेशनल थैरेपिस्ट बताते हैं कि ऑटिज्म बच्चों में एक जन्मजात समस्या है और समय पर इसकी पहचान हो जाए तो यह रिवर्स हो सकता है. इसके लिए बच्चों का 18 माह से 36 माह का समय बेहद महत्वपूर्ण होता है. माता-पिता को यह पहचान ना होगा कि कहीं उनके बच्चे को ऑटिज्म तो नहीं है.
ये भी पढ़ें- World Physical Therapy Day: IGIMS में 'अवेयरनेस वॉक' आयोजित, लोगों को किया गया जागरूक
बच्चों में ऑटिज्म की समस्या: बच्चों में ऑटिज्म पहचानने के लिए देखना होगा कि बच्चा आंखों से आंखें मिलाकर बात कर रहा है या नहीं, आपकी आवाज पर कोई प्रतिक्रिया दे रहा है या नहीं, सामाजिक संपर्क में रहना चाहता है या नहीं, अगर नहीं तो समझिए कि बच्चे में ऑटिज्म की समस्या है और इसके लिए जरूरी है कि समय रहते ऑटिज्म थेरेपी सेंटर का रुख करें.
पटना में ऑटिज्म थेरेपी सेंटर: पटना के बोरिंग रोड स्थित एक ऐसे ही ऑटिज्म थेरेपी सेंटर स्पर्श फॉर चिल्ड्रन की सह संस्थापक मुक्ता मोहिनी ने बताया कि हाल के वर्षों में बच्चों में ऑटिज्म की समस्या बढ़ी है और इसके पीछे कहीं ना कहीं न्यूक्लियर फैमिली और समाज से कटकर एक प्राइवेट लाइफ महत्वपूर्ण कारण है. उन्होंने कहा कि ऑटिज्म कोई बीमारी नहीं बल्कि बच्चों की एक स्थिति है, जिसे हमें स्वीकार करने की आवश्यकता है. सबसे पहले जरूरी है कि जो पेरेंट्स हैं, वह इस बात को स्वीकार करें.
लोगों को किया जा रहा जागरुक: मुक्ता मोहिनी ने बताया कि इस बार ऑटिज्म अवेयरनेस दिवस का थीम यही है कि लोगों में इसके प्रति जागरूकता है और ऑटिस्टिक लोगों को स्वीकार कर उन्हें समर्थन किया जाए. उन्होंने बताया कि ऑटिस्टिक बच्चे के सभी सेंस जागृत नहीं होते हैं और वह लोग अपने सेंटर पर इन बच्चों को विभिन्न माध्यम से इनके सेंस को जागृत करते हैं, ताकि यह बच्चे भी सामान्य बच्चों के बीच में बैठ कर पढ़ सके, सीख सकें और इनके बीच मिलजुल कर बैठ सकें.
बच्चों को डांटे नहीं: ऐसे बच्चे कुछ समय भी शांत नहीं बैठते हैं और उछलते कूदते रहते हैं. ऐसे में इन्हें खेल-खेल में बातों को समझाना होता है और इसके लिए उनके पास ट्रेंड प्रोफेशनल्स है जो ऑक्यूपेशनल थेरेपी की डिग्री लिए रहते हैं. इसके साथ ही दिल्ली स्थित ऑटिज्म थेरेपी में कुछ दिनों का वर्कशॉप का अनुभव रहता है. मुक्ता मोहिनी ने बताया कि उनकी 6 साल की बच्ची को ऑटिज्म की समस्या है और इसे एक्सेप्ट करती हैं और वह जिस भाषा में जिस शैली में सीखना चाहती है उसी शैली में उसे लाइफ स्किल्स सिखाया जाता है.
पैरेंट्स को रखना होगा ध्यान: ऑटिस्टिक बच्चों के पेरेंट्स को यह जानना होगा कि यह समस्या कोई 100 मीटर की दौड़ नहीं बल्कि एक मैराथन है. इस पर लंबे समय तक धैर्य के साथ काम करना होगा. उन्हें अपने बच्चों का समर्थन करना होगा. बच्चे शांत नहीं बैठ रहे हैं, बहुत कूद रहे हैं. अपनी टूटी फूटी भाषा में कुछ बोल रहे हैं. उसे सुनने की कोशिश कीजिए और बच्चों पर झल्लाएं नहीं, उन्हें प्यार से शांत करने की कोशिश करें और समझाने की कोशिश करें. इसका परिणाम यह होगा कि धीरे-धीरे बच्चे एक उम्र आने पर समाज में खुद के लिए जगह बना लेंगे.
समय पर पहचानना जरूरी: स्पर्श ऑटिज्म थेरेपी सेंटर की सह संचालिका रचना किशोरपुरिया ने बताया कि उनके बच्चे को भी डिस्लेक्सिया थी. इस पर समय रहते काम किया गया. बच्चा बेहतर है. उन्होंने बताया कि ऑटिज्म में यह भी देखना जरूरी है कि बच्चा का ऑटिज्म किस स्तर पर है और इसके लिए समय पर पहचानना बेहद जरूरी है. हल्के स्तर का ऑटिज्म है और समय पर काम किया जाए तो बच्चा पूरी तरह नॉर्मल लाइफ जीता है. उन्होंने बताया कि ऑटिस्टिक बच्चों के अभिभावकों को बहुत धैर्य रखने की आवश्यकता होती है और वह अभिभावकों की लगातार काउंसलिंग करती हैं. ़
पटना सेंटर में हैं 50 बच्चे: सह संचालिका ने बताया कि सेंटर पर लगभग 50 बच्चे हैं, जिसमें कुछ बच्चे सिर्फ वहीं पर क्लास करते हैं. जिसके तहत 1-2-1 मोड में ट्रेनर लाइफ स्किल सिखाते हैं. जैसे कि कविता याद कराना, पजल सॉल्व करना, मैथ्स प्रॉब्लम सॉल्व करना शामिल है. इसके अलावा कुछ बच्चे ऐसे भी आते हैं जो स्कूल जाते हैं और स्कूल के प्रिंसिपल अभिभावक से शिकायत करते हैं कि उनका बच्चा असामान्य है और यह सामान्य नहीं है, इसे कहीं और शिफ्ट कराइए अथवा इसमें डिसिप्लिन का बिहेवियर लाइये.
डाउन सिंड्रोम के बच्चे भी आते हैं: सह संचालिका ने कहा कि बच्चों के अभिभावक उनके पास आते हैं तो वह लोग ऐसे स्कूल में जाकर के समझाते हैं कि ऐसे बच्चों को थोड़ा प्यार से उन्हें स्वीकार करते हुए ट्रिट करें. वर्ग 8 तक के सरकारी स्कूलों में ऐसे बच्चों के लिए अनुकूल माहौल में पढ़ाई और बिना परीक्षा के अगले वर्ग में प्रवेश सुनिश्चित किया गया है और सीबीएसई भी कहता है कि ऐसे बच्चों के लिए स्पेशल ट्रेनर रखें. हम लोगों के पास डाउन सिंड्रोम के बच्चे भी आते हैं. उन्हें भी प्यार से लाइफ स्किल सिखाया जाता है. ऐसे बच्चे किसी का बुरा नहीं सोचते, किसी से बैर नहीं रखते और दिल के बहुत साफ होते हैं.
बच्चों को देते हैं खेलने-कूदने का मौका: रचना किशोरपुरिया ने कहा कि ऑटिस्टिक बच्चों को अगर हम स्वीकार करते हैं और उनकी हरकतों पर प्यार से समझाते हैं, उनकी हर बात पर टीका टिप्पणी नहीं करते बल्कि उन्हें खेलने-कूदने का पूरा मौका देते हैं तो धीरे-धीरे यह बच्चे समझदार बच्चे बनेंगे और आगे चलकर एक जिम्मेदार नागरिक भी बन पाएंगे. उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में ऑटिस्टिक लोगों की स्वीकृति और समर्थन में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है. कई ऑटिस्टिक बच्चे खेलकूद में बेहतर कर रहे हैं, जो दुनिया में सबके सामने है.