किशनगंज: जिले के 118 वर्ष पूरानी लाइन बूढ़ी कालीबाड़ी में भक्तों का अटूट आस्था है. भक्तों की ऐसी धारना है कि यहां दर्शन करने से मनोकामना पूरी होती है. 2040 तक भक्तों ने मनोकामना पूर्ण होने पर प्रतिमा की बुकिंग कर रखी है. आज भी मां बूढ़ी काली के दरबार पर पाठा बलि का परंपरा है.
मनोकामना पूर्ण होने बलि देने की परम्परा
भक्तों की मनोकामना पूर्ण होने पर भक्त पाठा की बलि देते हैं. पाठा की बलि देने के लिए यहां लंबी कतारें लगती है. मां बूढ़ी के दरबार में पूजा रात को 12 बजे शुरू होता है और सुबह तक चलता है. मां के दरबार में किशनगंज के श्रद्धालु ही नहीं बल्कि आसपास के सीमावर्ती जिले पश्चिम बंगाल, कोलकाता, दिल्ली, बेंगलुरु, उड़ीसा, नेपाल सहित देश के कोने-कोने से श्रद्धालु मां के दर्शन करने आते हैं और बूढ़ी काली मां शक्ति रूप में और शक्तिपीठ के रूप में किशनगंज के लोग पूजा करते हैं.
युवाओं को मां बूढ़ी काली के ऊपर अटूट आस्था
बूढ़ी काली के दरबार पर युवाओं का खास जमावड़ा लगता है. युवाओं को मां बूढ़ी काली के ऊपर अटूट आस्था है. प्राचीन समय से ही ऐसा मान्यता है कि मां बूढ़ी काली की बेदी की सफाई और सच्चे मन से पूजा अर्चना करने पर बेरोजगार युवाकों को रोजगार मिलता है. हालांकि इस बात की जब हमने पड़ताल की तो दर्जनों युवाओं ने कहा कि मां के आशीर्वाद से आज अच्छे संस्थानों पर नौकरी कर रहे हैं.
दर्शन के लिए दूर-दूर से आते हैं भक्त
मां बूढ़ी काली के दर्जनों युवा भक्तों को बैंक, रेलवे, स्कूल सहित कई सरकारी संस्थानों में नौकरी मिल चुकी है. आस्था के कारण अधिकतर युवा अपने संस्थानों से छुट्टी लेकर मां के दरबार पर हाजिरी लगाने पहुंचते हैं. कई भक्तों ने कहा मां यहां पर शक्ति रूपिणी है और सच्चे मन से मां से कुछ भी मांगने से मां भक्तों का मनोकामना जरूर पूरा करती हैं. जिस कारण मां के दर्शन के लिए भक्त दूर-दूर से आते हैं.
1902 से लेकर एक ही वंश के पुरोहित कर रहें पुजा
मां बूढ़ी काली का पूजा अर्चना करने वाले पुरोहित 1902 से लेकर अब तक एक ही वंश के हैं. वहीं प्रतिमा निर्माण एक ही वंश के मूर्तिकार प्राचीन समय से करते आ रहे हैं. साथ ही इस मंदिर में सालों भर मां की पूजा अर्चना सुबह-शाम होती है और प्रत्येक माह के अमावस्या को विशेष पूजा-अर्चना की जाती है.
स्थानीय लोगों ने बताया कि मां बूढ़ी काली यहां साक्षात्कार है. जानकार बताते हैं मंदिर से पूर्व यहां काफी जंगल हुआ करता था. साफ सफाई के दौरान यहां मां का बेदी मिला था जिसके बाद से अब तक मां की लगातार पूजा होते आ रही हैं.
1902 में झोपड़ीनुमा मंदिर में हुई थी पूजा
स्थानीय लोगों के द्वारा वर्ष 1902 में एक झोपड़ीनुमा मंदिर का निर्माण कर मां की पहली पूजा की गई थी. धीरे धीरे लोगों ने टीन नूमा मंदिर का निर्माण किया. वर्ष 2005 को मंदिर का जीर्णोद्धार कर भव्य मंदिर निर्माण किया गया है. आज मां का मंदिर पूरे जिले में आस्था का केंद्र बना हुआ है. हर साल कार्तिक माह की अमावस्या में वार्षिक काली पूजा का आयोजन होती है. हजारों की तादाद में श्रद्धालु मां के दरबार पर पहुंचते हैं.
हालांकि इस वर्ष कोरोना के कारण मां के दरबार में कोविड गाइडलाइन के तहत पूजा अर्चना की जा रही है. लेकिन आस्था के आगे कोरोना मां के दरबार पर हार मान चुका है और भक्तों का हुजूम मंदिर में कोविड प्रोटोकॉल के तहत मां का पूजा अर्चना कर रहे हैं.