किशनगंजः जिले में लगने वाला ऐतिहासिक खगड़ा मेला एक बार फिर से सजने के लिए तैयार है. इस मेले का उद्घाटन 5 फरवरी डीएम हिमांशु शर्मा करेंगे. मेले को लेकर लगभग सभी तैयारियां पूरी की जा चुकी हैं. जानकार बताते हैं कि इस मेले की शुरुआत 1883 में नवाब सैयद अता हुसैन ने की थी. मेले का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है. यह मेला पिछले 137 सालों से जारी है.
'मेले की रौनक हुई कम'
स्थानीय उस्मान गनी बताते हैं कि इस मेले को कभी सोनपुर के बाद एशिया का दूसरे सबसे बड़े पशु मेले के रूप में जाना जाता था. मेले में भारत ही नहीं बल्कि बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, मलेशिया अफगानिस्तान सहित देशों के व्यापारी यहां आते थे और अपने उत्पादों का स्टॉल लगाकर व्यापार करते थे. मेले की भव्यता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1950 में इस मेले में पशुओं की बिक्री से 80 लाख रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था. लेकिन आज यह मेला जिला प्रशासन की लापरवाही के कारण अपने गौरवशाली अतीत से कोसों दूर है.
'87 लाख में हुआ मेले का डाक'
मेले के संवेदक अजय कुमार साह बताते हैं कि आज भी यह मेला अपने अंदर कई सुनहरी यादों को संजोए हुए है. इस साल मेले का डाक 87 लाख 50 हजार रुपये में हुआ है. 5 फरवरी को डीएम हिमांशु शर्मा मेले का शुभारंभ करेंगे. मेले में लोगों को अकर्षित करने के लिए मनोरंजन के कई साधनों को मंगवाया गया है. पहले मेले में सर्कस को बुलाया जाता था. हालांकि पशुओं के खेल पर पाबंदी के कारण सर्कस में भीड़ पहले जैसी नहीं रही. लेकिन इस बार देश के कई सर्वश्रेष्ठ सर्कस को मंगवाया गया है. जो लोगों को नए अंदाज में मनोरंजन पेश करेंगे.
'मेले के मैदान पर बन चुका है सरकारी भवन'
स्थानीय लोगों का कहना है कि वर्तमान समय में मेले का स्वरूप धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. मेले की जमीन पर कई सरकारी मकान बन चुके हैं. पहले लोग जिले को खगड़ा मेले के नाम से जानते थे. लेकिन वर्तमान में मेला अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है.
नवाब सैयद अता हुसैन ने शुरू किया था मेला
जानकार बताते हैं कि मेले की शुरुआत तत्कालीन नवाब सैयद अता हुसैन ने किया था. वे इस मेले को लेकर काफी संवेदनशील थे. वे खुद से मेले में आए हुए व्यापारियों की सुरक्षा, साफ- सफाई, सजावट और सुविधाओं पर ध्यान देते थे. नवाब साहब हाथी पर सवार होकर मेले का भ्रमण कर मेले का मुआयना करते थे. वे सबसे अच्छे प्रतिष्ठान को खुद से पुरस्कृत किया करते थे. लोगों का कहना है कि समय के साथ ही इस मेले का स्वरूप घटता जा रहा है. कभी सैकड़ों एकड़ में लगने वाला मेला आज अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद कर रहा है.