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कटिहारः गांव से पलायन कर रहे हुनरमंद कुम्हार, नहीं चल रहा पुश्तैनी काम

स्थानीय कुम्हारों का कहना हैं कि इस उम्र में कोई दूसरा चारा भी नहीं है. पेट भरने का जुगाड़ करते-करते रात हो जाती है. हुनर होने के बावजूद हम लोग दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को मजबूर और बेबस है.

कटिहार कुम्हार
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Published : Oct 26, 2019, 7:26 AM IST

Updated : Oct 26, 2019, 7:39 AM IST

कटिहारः जिले में कुम्हारों की जिंदगी कुदरत और किस्मत के बीच संघर्ष करती रही है. यदि कुदरत का मिजाज ठीक रहा तो कुम्हारों के पेट की भूख मिट जाती है और यदि किस्मत दगा दे गया तो अनाज जुगाड़ करने के लिए दुगनी कीमत चुकानी पड़ती है.

दरअसल, कटिहार में बाढ़ और हुनर के बीच जंग चलता है, जहां बाढ़ हमेशा हुनर पर भारी पड़ता है. लिहाजा कटिहार के कुम्हार धीरे-धीरे अपने परंपरागत पेशे से तौबा करने को मजबूर है. क्योंकि हर साल इलाके में आने वाली बाढ़ कुम्हारों के मिट्टी के दाम बढ़ाने का काम करती है. यदि बाढ़ नहीं आयी और मिट्टी भी आसानी से मिल गई तो बाजार में पुलिस का डंडा, मंदी की मार इन्हें हुनर होने के बावजूद दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को मजबूर कर देती है.

देखें पूरी रिपोर्ट

पुश्तैनी काम करना मजबूरी

स्थानीय कुम्हार सुखदेव पंडित बताते हैं कि इस उम्र में कोई दूसरा चारा भी नहीं है. पेट भरने का जुगाड़ करते-करते रात हो जाती है. हुनर होने के बावजूद हमलोग दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को मजबूर और बेबस हैं. उनका कहना है कि अगर सरकार कुछ ध्यान देती तो हमारी भी किस्मत की रेखा बदल सकती है. वहीं, दूसरे कुम्हार नरेश पंडित बताते हैं हम लोग बीते 25 वर्षों से मिट्टी के बर्तन बनाने के पुश्तैनी काम में जुटे हैं. लेकिन अब यह काम नहीं करने का मन करता क्योंकि इतनी मेहनत करने के बाद भी कुछ फायदा नहीं होता है. दो,चार हजार रुपए की बचत करते-करते पूरा त्यौहार गुजर जाता है. दीया बनाने के लिए दिल में कोई उमंग नहीं बस इस धंधे में जीना हमारी मजबूरी और बेबसी बन गई है.

Katihar
तैयार दीये

'चाइनीज लाईट बैन करने की मांग'

वहीं, महिला कुम्हार अंजली देवी ने भी इस काम को मजबूरी और बेबसी बताया. उन्होंने कहा की अगर सरकार बाजार में प्लास्टिक के खिलौने और चाइनीज लाइटों को बैन कर दे तो हमलोगों के रोजगार को बढ़ावा मिल जाएगा. इससे पूरे कुम्हार समाज का भरण-पोषण हो सकेगा.

Katihar
दीये

मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ने की आस
देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सरकार बनते ही कुम्हारों को एक उम्मीद की किरण इस सरकार से जगी थी. जिस तरह से सरकार ने सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगा कर लोगों के जीवन शैली को बदलने और पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के लिए एक दूरगामी कदम उठाया है. सरकार के इस कदम से कुम्हारों के परंपरागत पेशे को संजीवनी मिलने की आस थी. कुम्हारों को स्टेशनों के स्टॉल पर कुल्हड़ के चाय, घरों के त्योहारों में मिट्टी के दीया सहित कई अन्य त्यौहारों और कार्यक्रमों में मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ने की उम्मीद है.

कटिहारः जिले में कुम्हारों की जिंदगी कुदरत और किस्मत के बीच संघर्ष करती रही है. यदि कुदरत का मिजाज ठीक रहा तो कुम्हारों के पेट की भूख मिट जाती है और यदि किस्मत दगा दे गया तो अनाज जुगाड़ करने के लिए दुगनी कीमत चुकानी पड़ती है.

दरअसल, कटिहार में बाढ़ और हुनर के बीच जंग चलता है, जहां बाढ़ हमेशा हुनर पर भारी पड़ता है. लिहाजा कटिहार के कुम्हार धीरे-धीरे अपने परंपरागत पेशे से तौबा करने को मजबूर है. क्योंकि हर साल इलाके में आने वाली बाढ़ कुम्हारों के मिट्टी के दाम बढ़ाने का काम करती है. यदि बाढ़ नहीं आयी और मिट्टी भी आसानी से मिल गई तो बाजार में पुलिस का डंडा, मंदी की मार इन्हें हुनर होने के बावजूद दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को मजबूर कर देती है.

देखें पूरी रिपोर्ट

पुश्तैनी काम करना मजबूरी

स्थानीय कुम्हार सुखदेव पंडित बताते हैं कि इस उम्र में कोई दूसरा चारा भी नहीं है. पेट भरने का जुगाड़ करते-करते रात हो जाती है. हुनर होने के बावजूद हमलोग दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को मजबूर और बेबस हैं. उनका कहना है कि अगर सरकार कुछ ध्यान देती तो हमारी भी किस्मत की रेखा बदल सकती है. वहीं, दूसरे कुम्हार नरेश पंडित बताते हैं हम लोग बीते 25 वर्षों से मिट्टी के बर्तन बनाने के पुश्तैनी काम में जुटे हैं. लेकिन अब यह काम नहीं करने का मन करता क्योंकि इतनी मेहनत करने के बाद भी कुछ फायदा नहीं होता है. दो,चार हजार रुपए की बचत करते-करते पूरा त्यौहार गुजर जाता है. दीया बनाने के लिए दिल में कोई उमंग नहीं बस इस धंधे में जीना हमारी मजबूरी और बेबसी बन गई है.

Katihar
तैयार दीये

'चाइनीज लाईट बैन करने की मांग'

वहीं, महिला कुम्हार अंजली देवी ने भी इस काम को मजबूरी और बेबसी बताया. उन्होंने कहा की अगर सरकार बाजार में प्लास्टिक के खिलौने और चाइनीज लाइटों को बैन कर दे तो हमलोगों के रोजगार को बढ़ावा मिल जाएगा. इससे पूरे कुम्हार समाज का भरण-पोषण हो सकेगा.

Katihar
दीये

मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ने की आस
देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सरकार बनते ही कुम्हारों को एक उम्मीद की किरण इस सरकार से जगी थी. जिस तरह से सरकार ने सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगा कर लोगों के जीवन शैली को बदलने और पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के लिए एक दूरगामी कदम उठाया है. सरकार के इस कदम से कुम्हारों के परंपरागत पेशे को संजीवनी मिलने की आस थी. कुम्हारों को स्टेशनों के स्टॉल पर कुल्हड़ के चाय, घरों के त्योहारों में मिट्टी के दीया सहित कई अन्य त्यौहारों और कार्यक्रमों में मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ने की उम्मीद है.

Intro:कटिहार

कटिहार में कुम्हारों के जिंदगी कुदरत और किस्मत के बीच संघर्ष करती है। यदि कुदरत का मिजाज ठीक रहा तो कुम्हारों के पेट की भूख मिट जाती है और यदि किस्मत दगा दे गया तो अनाज जुगाड़ करने के लिए दुगनी कीमत चुकानी पड़ती है।

Body:दरअसल कटिहार में बाढ़ और हुनर के बीच जंग चलता है जहां बाढ़ हमेशा हुनर पर हावी रहता है। लिहाजा कटिहार के कुम्हार धीरे-धीरे अपने परंपरागत पेशे से तौबा कर रहे हैं। क्योंकि हर साल इलाके में आने वाली बाढ़ कुम्हारों के मिट्टी के दाम बढ़ा डालते हैं जिससे इन्हें ₹500 की मिट्टी ₹2000 प्रति ट्रैक्टर में मिलती है और यदि बाढ़ नहीं आया और मिट्टी भी आसानी से मिल गए तो बाजार में पुलिस वाले का डंडा, मंदी की मार इन्हें हुनर होने के बावजूद दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को मजबूर कर देती है।

आइए आज हम आपको कटिहार में आजादी से पहले बसे कुम्हारों की टोली में ले चलते हैं। पहले इस बस्ती में सैकड़ों लोग मिट्टी के बर्तन बनाते थे दिनभर चाक पर मिट्टी के समान बनाते रहते थे शाम होते ही घर के बाहर भट्टी जलती थी जिसमें मिट्टी के बने सामान पकाए जाते थे लेकिन अब यहां नहीं तो वह अब नगरी है और ना ही वह कुम्हारों का धाम है। ईंट के बने अटालीकाओं ने जहां यहां पर अपना बसेरा बना डाला है वह बमुश्किल 20-25 घर मिट्टी के दीये बनाने के परंपरागत रोजगार से जुड़े हैं। इन कुम्हारों की एक भी युवा पीढ़ी परंपरागत पेशा को नहीं अपनाया है।

हर साल आने वाली बाढ़ के कारण मिट्टी के दाम आसमान छूते हैं कभी यह मिट्टी ₹500 ट्रैक्टर इन कुम्हारों को आसानी से उपलब्ध हो जाया करता था लेकिन बाढ़ के थपेड़ों की वजह से दीये की मिट्टी कुम्हारों से दूर हो गया है। और यदि किसी कुम्हार को दीये बनाने की जरूरत हो तो 2 से 3 हजार रुपए प्रति ट्रैक्टर मिट्टी बड़ी मशक्कत के बाद नसीब होता है और यदि एक ट्रैक्टर मिट्टी से दीये तैयार किए जाए तो उसमें करीब 20-25 हजार दिए बनेंगे साथ ही जलावन की भी जरूरत होगी। कुल मिलाकर यदि देखा जाए तो 20-25 हजार दीये बनाने के बाद जिस पर 3 से 4 महीने का समय लगता है बमुश्किल ₹10000 की बचत हो पाती है जिससे आसमान छूती महंगाई के दौर में बचत के यह रुपए कब खर्च हो जाते हैं पता भी नहीं चलता लेकिन करें भी तो करे क्या।

स्थानीय कुम्हार सुखदेव पंडित बताते हैं कि इस उम्र में कोई दूसरा चारा भी नहीं है जैसे तैसे पेट भात की जुगाड़ करते करते रात हो जाती है। हुनर होने के बावजूद हम लोगों को दूसरे प्रदेशों में पलायन मजबूरी और बेबसी है। सरकार कुछ ध्यान देती तो हमारी भी किस्मत की रेखा बदल सकती है।

दूसरे कुम्हार नरेश पंडित बताते हैं हम लोग बीते 25 वर्षों से मिट्टी के बर्तन बनाने के पुश्तैनी धंधे में जुटे हैं लेकिन अब दिल नहीं करता। क्योंकि इतनी मेहनत करने के बाद कुछ फायदा नहीं है। 2-4 हजार रुपए की बचत करते-करते पूरा त्यौहार गुजर जाता है। दीया बनाने के लिए दिल में कोई उमंग नहीं होती है बस धंधे में जीना हमारी मजबूरी और बेबसी है। सबसे बड़ी मुसीबत तो बाढ़ है जो हर साल मिट्टी की कीमत बढ़ा डालती है। आज के दौर में एक ट्रैक्टर मिट्टी लेकर दिए बनाना फिर उसे बाजार में बेचने जाना काफी जोखिम भरा है। क्योंकि अतिक्रमण के नाम पर पुलिस वाले के डंडे आए दिन गरीबों के पीठ पर पडते रहते हैं। महिला कुम्हार अंजली देवी तो पेशे के दर्द के सवालों को सुनते ही भड़क गई और बताती है कि सरकार ने उन्हें अभी तक क्या दिया है?

Conclusion:देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सरकार बनते ही कुम्हारों को एक उम्मीद की किरण सरकार से जगी थी कि जिस तरह से सरकार ने सिंगल यूज़ प्लास्टिक पर बैन लगा कर लोगों के जीवन शैली को बदलने और पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के लिए एक दूरगामी कदम उठाया है प्रधानमंत्री के इस कदम से कुम्हारों के परंपरागत पेशे को संजीवनी मिलने की आस थी और स्टेशनों के स्टॉल पर कुल्हड़ के चाय, घरों के त्योहारों में मिट्टी के दीया सहित कई अन्य त्यौहारों और कार्यक्रमों में मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ने की उम्मीद है और कुम्हारों के परंपरागत पेशा दोबारा खुशहाल होने की ओर अग्रसर है। लेकिन बाढ़ के कुदरत के कहर के सामने कुम्हारों की यह आशा परीक्षा में कितनी खरी उतरती है वह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिलहाल कटिहार के कुम्हारों की परंपरागत पेशा को बाढ़ ने कमर तोड़ डाली है और यदि सरकार के मदद के हाथ जल्द ही इन कुम्हारों तक नहीं पहुंची तो कटिहार के कुम्हारों की यह बस्ती वीरान हो जाएगी।
Last Updated : Oct 26, 2019, 7:39 AM IST
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