गया: संसार के सबसे पुराने सनातन धर्म में पितृपक्ष का खास महत्व है. धर्म ग्रंथों के अनुसार गया को ही अंतिम मोक्ष की प्राप्ति का स्थान माना गया है. यहां विश्व प्रसिद्ध पितृपक्ष मेला शुरू हो गया है, जो 17 दिन तक चलेगा. देश-विदेश से हजारों की संख्या में पिंड दानी मोक्षधाम पहुंचने लगे हैं.
भगवान विष्णु के चरणों की छाया में गयाधाम अवस्थित है. यह पुण्य धाम संसार के प्राचीन शहरों में से एक है. अपने पितरों यानी पूर्वजों की मोक्ष प्राप्ति के लिए पिंडदानी देश-विदेश से यहां पहुंच रहे हैं. पितृपक्ष में पूर्वजों को मोक्ष दिलाने की कामना के साथ 'मोक्ष नगरी' गया आने वाले पिंडदानियों के लिए सज-धज कर तैयार है.
अजमेर से मन नहीं संतुष्ट, गया का किया रुख
अजमेर से अपने भाई का पिंडदान करने पहुंची एक महिला ने बताया कि उसने गया के पितृपक्ष के बारे में काफी चर्चा सुनी है. मन की संपूर्ण संतुष्टि के लिए वह अजमेर छोड़ गया आई हैं. उन्होंने बताया कि उनके पिता का पिंडदान अजमेर में ही हुआ था, लेकिन उससे उनका मन संतुष्ट नहीं हुआ. इसलिए वह भाई का पिंडदान करने यहां आ गईं.
'तीर्थों की प्राण- गया'
गया को तीर्थों का प्राण कहा गया है. संपूर्ण भारत में गया ही ऐसा शहर है जिसके लिए लोग श्रद्धा से गया जी कहकर संबोधित करते हैं. इस शहर की चर्चा ऋग्वेद में भी है. चीनी यात्री फाह्यान ने 441 ईसवी में भारत भ्रमण के दौरान किताब में गया का जिक्र किया है. मंदिर के महंतों ने बताया कि प्रतिदिन 40-50 हजार पिंडदानी यहां पितरों के पिंडदान के लिए आते हैं.
17 दिनों तक 48 वेदियों पर होगा पिंडदान
इस वर्ष पिंडदान की अवधि 17 दिनों की है. यहां कुल 48 वेदियां हैं जिनपर पिंडदान करने में 15 से 17 दिनों का समय लगता है. प्रत्येक पिंडवेदी का अलग महत्व है. यहां कई सरोवर पिंडवेदी में है. बताया जाता है दशकों पहले यहां 365 वेदियां थीं. सभी पिंडवेदी पर दान करने में एक वर्ष लगता था. अब ये सभी विलुप्त हो गई हैं. विष्णुपद, फल्गू नदी, सीताकुंड, अक्षयवट और प्रेतशिला प्रमुख पिंडवेदी हैं.
भगवान विष्णु का गयासुर को वरदान
मान्यता के अनुसार यह विष्णु की नगरी है जिसे गयासुर ने अंतिम इच्छा के रूप में मांगा था. तब भगवान विष्णु से वरदान मांगा था कि भगवान मैं जिस स्थान पर प्राण त्याग रहा हूं वो शिला में परिवर्तित हो जाए और उसमें मैं मौजूद रहूं. साथ ही शिला पर आपके पवित्र चरण की स्थापना हो. इस शिला पर पिंडदान करने वाले को मोक्ष प्राप्ति हो. आज भी वह चिह्न विष्णुपद मंदिर में मौजूद है.
ऋग्वेद में गया का जिक्र
इस शहर की चर्चा ऋग्वेद में भगवान विष्णु की नगरी गया धाम के तौर पर की गई है. इसे सनातन धर्मावलंबियों के लिए गयासुर नामक राक्षस ने पावन बनाया है. इसके पीछे वायुपुराण में कहानी है कि प्राचीन काल में गयासुर नामक एक असुर बसता था. उसने दैत्यों को गुरू शंकराचार्य के सेवा कर वेद वेदांत, धर्म और युद्ध कला में महारथ हासिल कर भगवान विष्णु की घोर तपस्या की.
गयासुर का शरीर ही गया क्षेत्र
देवी-देवता का अस्तित्व संकट में आने लगा था. ब्रह्मा ने एक सभा बुलाकर विचार-विमर्श किया. उसके बाद भगवान विष्णु ने ब्रह्मा से कहा कि आप सभी गयासुर को उसके शरीर पर यज्ञ करने के लिए राजी करें. उसके बाद ब्रह्मा जी गयासुर के पास गए और कहा कि मुझे यज्ञ करने के लिए स्थल की जरूरत है. तुम्हारे शरीर से अधिक पवित्र स्थल कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है.
यज्ञ के लिए शरीर किया समर्पित
गयासुर अपने शरीर को यज्ञ के लिए देने के लिए राजी हो गया. देवता उसके शरीर पर यज्ञ करने लगे. देवताओं ने गयासुर की जीवनलीला समाप्त करने के लिए धर्मशिला पर्वत उसकी छाती पर रख दिया. तब भी गयासुर जीवित रहा. अंत में भगवान विष्णु यज्ञ स्थल पर पहुंचे और गयासुर के सीने पर रखे धर्मशिला पर अपना चरण दबाते हुए गयासुर से कहा अंतिम घड़ी में मुझसे जो चाहे वर मांग लो.
'पिंडदान से मिटते जाते हैं पाप'
इस पर गयासुर ने कहा कि भगवान मैं जिस स्थान पर प्राण त्याग रहा हूं वो शिला में परिवर्तित हो जाए. उसमें मैं मौजूद रहूं. इस शिला पर आपके पवित्र चरण की स्थापना हो. साथ ही, जो इस शिला पर पिंडदान और मुंडन दान करे उसके पूर्वजों के तमाम पाप मिट जाएं और मुक्त होकर स्वर्ग में वास करे.
भगवान विष्णु के पदचिह्न अब भी मौजूद
साथ ही गयासुर ने मांगा कि जिस दिन पिंडदान होना बंद हो जाए उसी दिन इस क्षेत्र का नाश हो जाए. वर देने के बाद भगवान विष्णु ने शिला को इतने जोर से दबाया कि उनके चरण चिह्न स्थापित हो गए. वह निशान आज भी विष्णुपद मंदिर में मौजूद है. भगवान विष्णु द्वारा गयासुर को दिए गए वरदान के बाद से ही पितरों के मोक्ष के लिए गयाधाम में पिंड दान की परंपरा का आज तक चली आ रही है.
चीनी यात्री फाह्यान ने भी इसका जिक्र किया है. 441 ईसवीं तक भारत के विभिन्न स्थलों का भ्रमण कर उसने अपनी किताब में इसकी चर्चा की है.