गया: बिहार के गया जिले के मानपुर पटवाटोली में आईआईटीयन की पौध (IITians in Gaya) तैयार की जा रही है. सफल होने के बाद देश-विदेश में जॉब करने वालों द्वारा इस कड़ी को अंजाम तक पहुंचाया जा रहा है. आईआईटी की सफलता को लेकर पहले से मशहूर पटवाटोली को विलेज ऑफ आईआईटीयन (Village of IITians of Bihar) बनाने की तैयारी है. इस बड़े मकसद में छात्रों को सफल करने के लिए निशुल्क पूरी पढ़ाई की व्यवस्था है. यहां के बच्चे अपने सीनियर्स से प्रेरणा और गाइडेंस ले रहे हैं.
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पावरलूमों के कर्कश शोर के बीच पढ़ाई: बिहार के गया जिले में मानपुर का पटवाटोली पावरलूम उद्योग (Patwatoli Powerloom Industry of Manpur) के लिए जाना जाता है. यह आईआईटीयन के क्षेत्र में सफल छात्रों के लिए भी मशहूर है. पावरलूमों के कर्कश शोर के बीच गया के पटवाटोली में 'वृक्ष' नाम की निशुल्क लाइब्रेरी बनी है. यह नई पहल है. इससे सैकड़ों छात्र सफल भी हो चुके हैं. गया के मानपुर पटवा टोली मोहल्ला में पटवा समुदाय के सैंकड़ों परिवार निवास करते हैं. संकरी गलियां और हज़ारों पावरलूम की कर्कश शोर के बावजूद यह मोहल्ला अब धीरे-धीरे विलेज ऑफ आईआईटीयंस के रूप में जाने जाना जाने लगा है.
वृक्ष - बी द चेंज की मुहिम: ये लाइब्रेरी कोई सरकारी लाइब्रेरी नहीं बल्कि इसी गांव के उन युवकों के आर्थिक सहयोग से चलती है जो आईआईटी में सफलता पाने के बाद आज विदेशों में नौकरी कर रहे हैं. चंद्रकांत पाटेश्वरी की सुने तो इसकी शुरूआत 1996 में हुई. उन्होंने बताया कि जितेंद्र सिंह से यहां के बच्चे बहुत प्रेरित हुए. जेईई की तैयारी को क्रेज हो गया. जितेन्द्र ने ही यहां वृक्ष बी द चेंज संस्था के नाम से ये लाइब्रेरी शुरू कराई जहां सभी इच्छुक बच्चे आकर निशुल्क पढ़ सकें. यहां किताबों की व्यवस्था हुई.
गरीब छात्रों को मिली वृक्ष की छांव: यहां कोई भी स्टूडेंट निशुल्क पढ़ सकता है. आईआईटी की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स को इस गांव के वो सीनियर्स ऑनलाइन कोचिंग भी देते हैं, जो आईआईटी से पढ़ाई कर चुके हैं या कर रहे हैं. यहां 10वीं और 12वीं के बोर्ड परीक्षा की तैयारी करने वाले बच्चे भी आते हैं. यहां पावरलूमों की कर्कश आवाज और संकरी गलियों में अवस्थित कुछ कमरों में आईआईटीयंस की नई पौध तैयार हो रही है. यहां गरीब तबके से लेकर आम छात्र आईआईटीयन बनने के सपने को साकार करने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हैं. जिसके कारण ही यहां के बच्चे हर वर्ष सफलता की परचम लहराते हैं.
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ऐसे हुई थी वृक्ष संस्था की शुरुआत: वहीं संस्थापक चंद्रकांत पाटेकर ने बताया कि मेरे कुछ दोस्त थे जो पढ़ाई करना चाहते थे लेकिन उनके पास पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे. बचपन में मैंने देखा कि कैसे मेरे दोस्तों को पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी. उसी समय से हमलोगों को लग रहा था कि हमें कुछ करना चाहिए. हमारी कोशिश है कि पैसों के कारण कोई बच्चा पीछे नहीं रहना चाहिए. यहां हर घर में इंजीनियर हैं, उन सभी का सपोर्ट हमें मिलता है. एक जितेंद्र सिंह 1992 के पास आउट हैं वो भी पूरा सपोर्ट करते हैं.
विलेज ऑफ आईआईटीयंस: लाइब्रेरी के कर्ताधर्ता चंद्रकांत पाटेश्वरी बताते हैं कि पटवाटोली को पहले मैनचेस्टर ऑफ बिहार के नाम से जाना जाता था. क्योंकि यहां लूम के जरिये चादर, तौलिये, गमछा आदि का उत्पादन होता है. लेकिन अब इसकी पहचान विलेज ऑफ आईआईटियंस के नाम से भी है. इस गांव से अब हर साल एक दर्जन से ज्यादा छात्र-छात्राएं बिना किसी बड़ी कोचिंग के ही जेईई में सेलेक्शन पाते हैं. सफलता की ये इबारत इसी लाइब्रेरी में कड़ी मेहनत और सीनियर्स के गाइडेंस के साथ लिखी जाती है.
"एक जितेंद्र भईया हैं वो 1992 में पास हुए थे. उनको अच्छा जॉब लगा. अभी जितेंद्र सिंह यूएसए में हैं. उन्हें ही देखकर बहुत लोग मोटिवेट हुए. उन्होंने कपड़ा उद्योग के अलावा भी एक नया सपना यहां के लोगों को दिया. वो हमेशा हमें सपोर्ट करते हैं. यहां से पिछले साल 8 बच्चे पास आउट हुए थे. कुल डेढ़ सौ के करीब बच्चे अबतक सफल हो चुके हैं." - चंद्रकांत पाटेकर, संस्थापक
पावरलूम का शोर अच्छा लगता है: पटवाटोली में पावरलूम के शोर में पढ़ाई करने वाले छात्रों का कहना है कि उन्हें शोर से कोई परेशानी नहीं होती बल्कि शोर उनके लिए संगीत की धुन बन जाता है और वो ध्यान लगाकर पढ़ाई कर पाते हैं. लाइब्रेरी में पढ़ने वाले छात्र मोहित बताते है कि, मोबाइल न होने के कारण परेशानी हो रही थी. एक घर में अगर एक मोबाइल है और बच्चे ज्यादा हैं तो सभी को ऑनलाइन क्लास करने में समस्या आ रही थी. कोरोना में परेशानी काफी बढ़ गई थी. लेकिन अब ऑनलाइन क्लासेस से बहुत सहूलियत हुई है. मैं अगर सफल हुआ तो आगे भी दूसरे छात्रों की मदद जरूर करूंगा, जैसे आज मेरी मदद की जा रही है.
बुनकरों ने अपने बच्चों को पढ़ाने की सोची: लगभग 10 हजार की आबादी वाले पटवा टोली गांव में लोगों का पेशा बुनकरी ही था. गांव में अधिकतर पटवा जाति के लोग हैं. सालों से बुनकर का काम करने वाले इस समुदाय के सामने नब्बे के दशक में रोजी-रोटी का संकट आया. तभी उस पीढ़ी के बुनकरों ने अपने बच्चों को इस पेशे से हटकर पढ़ाने और कुछ नया करने की सोची. 1992 से चली इस कोशिश ने आज पूरे गांव को नई दिशा दे दी है.
23 साल में इस गांव ने दिए रिकॉर्ड इंजीनियर : 1998 के बाद इसके परिणाम दिखने लगे, जब तीन लड़कों ने आईआईटी में प्रवेश पाया.1999 में सात छात्रों ने परीक्षा पास की. उसके बाद उनलोगों ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. पिछले डेढ़ दशक में स्थानीय लोगों ने गांव से पास हुए बच्चों का एक रिकॉर्ड रखा है. इसके मुताबिक, यहां से 300 से अधिक छात्र सिर्फ आईआईटी में शामिल हुए हैं, जबकि कई अन्य एनआईटी और अन्य शीर्ष क्षेत्रीय इंजीनियरिंग संस्थानों में गए हैं.
2014 में 13 छात्रों ने जेईई एडवांस्ड क्लीयर किया था. 2015 में 12 बच्चों ने आईआईटी प्रवेश परीक्षा पास की. 2016 में पटवा टोली इलाके के 11 सफल आईआईटी उम्मीदवार थे. 2017 में 20 और 2018 में केवल पांच छात्र ही इस एक्जाम को पास कर पाए. 2021 में 20 से अधिक छात्रों ने जेईई एडवांस में सफलता प्राप्त की है. गांव वालों की माने तो अब तक करीब 500 से ज्यादा छात्र गांव में पढ़ाई करके आईआईटी और एनआईटी जैसे इंजीनियरिंग संस्थानों में पहुंच चुके हैं. इतना ही नहीं दुनिया के कई देशों में यहां के आईआईटी पास आउट बढ़िया नौकरियों में हैं.
पटवा टोली में 882 पावरलूम : आज पटवा टोली में सरकार से निबंधित 882 पावरलूम इकाई है. उक्त इकाई में करीब नौ हजार पावर लूम संचालित है. ट्रक से उतार कर धागा को गोदाम तक लाने, ताना-बाना करने से लेकर लूम पर विभिन्न तरह के वस्त्र बनाने , सरियाने, वस्त्र को ठेला से गोदाम तक पहुंचाने एवं दूसरे प्रदेश में भेजने के लिए ट्रक पर लोड करने से करीब 45 हजार बुनकर मजदूर लगे हैं.
कई राज्यों में होती है कपड़ों की सप्लाई: पंजाब के धागा से गया में वस्त्रों का निर्माण होता है. प्रतिदिन दो ट्रक धागा पंजाब एवं तमिलनाडु से मंगाया जाता है. यहां लूम के जरिये चादर, तौलिये, गमछा आदि का उत्पादन होता है. इसकी बिक्री बिहार के अलावा झारखंड्, बंगाल, असम में होती है. पटवा टोली से प्रतिदिन एक ट्रक गमछा बंगाल भेजा जाता है. इसके अलावा भी कई जगहों पर गमछा, रजाई, तोशक के खोल के कपड़े की थान भेजी जाती है.
अब रंगीन धागों में उलझकर नहीं रहेगा भविष्य: फिलहाल, पटवा टोली के गांव के पूर्वज कपड़ा उद्योग से जुड़े हैं. गांव में घुसते ही आज भी आपको धागे की महक, मशीन की तेज आवाज आदि सुनाई दे सकती है. यहां के लोगों का मुख्य और एकमात्र व्यवसाय कभी बुनाई ही हुआ करती थी. यहां जाति मायने नहीं रखती. हर वर्ग कपड़ा उद्योग से जुड़ा है. लेकिन आधुनिक युग में पूरी तरह से गांव का परिदृश्य बदल चुका है. यहां के माता-पिता अब रंगीन धागों में उलझकर नहीं रह गए हैं. अपने बच्चों के भविष्य को इस रंगीन धागे के अनदेखे संघर्ष की छाया में रखे जरूर, लेकिन उनका भविष्य इस छाया से कोसों दूर है. एक तरफ कपड़े की बुनाई तो दूसरी ओर आईआईटी के छात्रों को बनाकर यहां के लोगों ने सच में कमाल कर दिया है.
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