गया: प्राचीन ग्रंथों जैसे अत्रिस्मृति, कात्यायन स्मृति, वृहस्पति स्मृति, महाभारत, बाल्मिकी रामायण, वाराह पुराण, अग्नि पुराण, गरुड़ पुराण और वायु पुराण में गया का विस्तृत वर्णन है. गया को मंदिरों का शहर कहा जाता है. अधिकांश मंदिर पिंडवेदी हैं. जहां पिंडदान किया जाता है. गया का सबसे प्रमुख मंदिर भी पिंडवेदी है.
पितृ को मोक्ष दिलाने को लिये गया में पिंडदान किया जाता है. यहां कुल 48 पिंड वेदियां हैं. सभी वेदियों पर पिंडदान करने का अगल-अगल महत्व है. गया को दूसरे क्षेत्र में सनातन धर्मावलंबी श्री विष्णुपद को मंदिर के नाम से जानते हैं. श्री विष्णुपद गया तीर्थ का प्रधान वेदी है, जिसकी गणना त्रिप्रधान वेदी के मध्य में किया गया है. अन्य दो वेदियां जो प्रख्यात हैं. वह फल्गु और अक्षय वट है.
क्या होता है पिंडदान
मृतक के निमित्त अर्पित किए जाने वाले पदार्थ जैसे पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं. पिण्ड का अर्थ है शरीर. यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं.
पितरों को गोलाकार पिंड करते हैं अर्पित
पिंडदानी पिंडवेदी पर गोलाकार आटे का पिंडदान करते हैं. पिंडवेदी के उत्पत्ति के पीछे यही गोलाकार है. पंडित रामाचार्य जी बताते हैं पिंड की उत्पति मनुष्य के जन्म और मृत्यु से हुआ है. इंसान की जब मृत्यु हो जाती है तब उसके शरीर से निकलने वाला आत्मा भी गोलाकार होत है. इसलिए पिंडदान में आटे का गोलाकार पिंड अर्पित किया जाता है.
सात प्रकार के होते हैं पितृ
पंडित रामाचार्य बताते हैं कि पितृ सात प्रकार के हैं. पिंडदान के वक्त हम पहले इन सातों को दान देते हैं. उसके बाद अपने पितरों को देते है. शुक्राणु और आत्मा दोनों पितृ हैं. जैसे चना और मूंग के अंदर एक सफेद रंग का अंकुर रहता है वो पितृ है. वो कभी नहीं मरता है. वेद मंत्रों में आसमान और पृथ्वी को पितृ का स्थान दिया गया है. ये दोनों हमारा पालन पोषण करते हैं. ठीक वैसे ही स्त्री-पुरुष दोनों को पितृ ही कहा जाता है.