भोजपुर: लॉकडाउन के कारण दूसरे राज्यों में फंसे लोग जैसे-तैसे प्रदेश लौटने की जद्दोजहद में लगे हैं. कोई पैदल, तो कोई ट्रेन से, तो वहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्हें ये सुविधा नहीं मिली तो गाड़ी भाड़े पर लेकर ही घर लौटने का फैसला किया. ऐसे में पैसा जुटाने के लिए घर से मदद लेनी पड़ी. इंदौर से बच्चों संग पीरो पहुंचे दंपति ने जब अपना दुखड़ा सुनाया तो लोगों की आंखें नम हो गईं.
अनाज बेचकर घर के लोगों ने जुटाया भाड़े का पैसा
इंदौर में परिवार के साथ रहने वाले अनिल प्रजापति वहां बाइक रिपेयरिंग का कार्य करते थे. लॉकडाउन के बाद काम बंद होने से आमदनी भी बंद हो गई. जिसके बाद कुछ दिनों तक इंतजार के बाद इन्होंने घर लौटने का फैसला किया. कुछ साधन नहीं होने की वजह से इन्होंने भाड़े की बस से इंदौर से घर जाने का फैसला किया. लेकिन उतना पैसा पास में नहीं रहने के कारण घर से पैसा मांगना पड़ा. घर के लोगों ने जैसे-तैसे अनाज बेचकर उन्हें पैसा भेजा. जिसके बाद अनिल परिवार के साथ वापस लौटे. लेकिन, इस यात्रा के दौरान परेशानियों को याद कर उनकी पत्नी की आंखें नम हो जाती हैं. फिर, कहती हैं सबसे अच्छा अपना घर है. अब बाहर कमाने नहीं जाएंगे.
'अपने गांव से अच्छा कुछ नहीं'
जिले के पीरो प्रखंड के पिटरो गांव के रहने वाले अनिल की पत्नी आशा रोते हुए अपनी इस यात्रा को याद करती हैं. कहती हैं कि जब तक मध्य प्रदेश की सीमा में थे दो बार फ्री में खाना और पानी दिया गया. बिहार की सीमा में आते ही खाना-पानी कुछ नहीं मिला. बच्चे दूध के लिए तरस गए.
आशा कहती हैं कि इंदौर में पैसा खत्म होने पर दो-चार दिनों तक तो खाना मांगकर काम चलाया. उसके बाद घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया. पुलिस भी डंडे चटका रही थी. कुछ सामाजिक लोगों ने सहायता की. घर पर फोन किया गया तो परिजनों ने घर में रखा गेहूं-चावल बेचकर पैसे भेजे. जिसके सहारे यहां लौट पाई. वहीं, पति अनिल प्रजापति ने रोते हुए कहा कि अपने गांव से अच्छा कुछ भी नहीं.
अब बाहर कमाने नहीं जाएंगे- प्रवासी मजदूर
ऐसी हालत सिर्फ अनिल की ही नहीं है. ऐसे कई परिवार हैं जिन्हें इस लॉकडाउन ने तोड़कर रख दिया है. हरियाणा से एक बस पर सवार होकर करीब 30 मजदूर घर पहुंचे. सभी ने बताया कि 5100 रुपया भाड़ा देकर यहां पहुंचे हैं. जितौरा के राजीव कुमार, विशाखापटनम से अखिलेश्वर कुमार, गुजरात से वैजनाथ प्रसाद, चंदन कुमार, कामेश्वर, मुकेश सहित कई ऐसे प्रवासी मजदूर हैं जो अपनी धरती को ही बेहतर मानते हैं. उनका कहना है कि हम अपनी धरती को नमन करते हैं. इससे अच्छा कुछ भी नहीं. अब हम कहीं बाहर कमाने नहीं निकलेंगे.