भोजपुरः दीपावली को दीपों के त्योहार (festival of lights) के नाम से जाना जाता है. इस दिन मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा रही है. मिट्टी के कलश और लक्ष्मी की मूर्ति की मांग बढ़ जाती है. लेकिन, बदलते परिवेश के इस दौर में फैंसी लाइट और झालर (fancy lights and skirting) ने मिट्टी के बने दीयों के साथ ही अन्य दूसरे सामान की चमक को फीकी कर दी है. जिसका सीधा असर कुम्हार परिवारों की रोजी-रोटी पर पड़ा है. कुम्हार परिवार भी मानते हैं कि फैंसी लाइट और झालर के आ जाने से अब मिट्टी के सामान की डिमांड कम हो गई है.
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फैंसी लाइट और झालर ने कुम्हारों की बढ़ाई चिंता: आरा मौलाबाग के कमलेश कुम्हार ने बताया कि आज आधुनिकता ने मिट्टी के बर्तन की मांग कम कर दी है. दीपावली पर्व की तैयारी में लगभग 2 महीने पहले से पूरा परिवार जुट जाते हैं. मिट्टी के दीये, कलश, लक्ष्मी जी की मूर्ति बनाते रहे हैं. मिट्टी के इस काम में खूब मेहनत लगता है, लेकिन मेहनत के हिसाब से पैसा नहीं मिल पाता. जहां पहले दीवाली में मिट्टी के खिलौने बनते थे और बच्चे उससे खेलते थे. बच्चों के लिए परिजन खिलौने अलग से खरीद कर ले जाते थे, लेकिन अब मोबाइल,वीडियो गेम और इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों के आगे मिट्टी के खिलौने बिल्कुल बंद हो चुके हैं. बिक्री नहीं होने की वजह से हमलोग भी खिलौने बनाना बंद कर दिये हैं.
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मुहूर्त तक ही सीमित रह गए मिट्टी के बर्तनः कमलेश ने बताया कि आधुनिकता के इस दौर में फैंसी लाइट और झालर के आ जाने से मिट्टी से बने सामानों की डिमांड पहले की तुलना में घट गई हैं. जिसका सीधा असर उनलोगों की रोजी-रोटी पर पड़ता है. लेकिन कुम्हार परिवारों की पुश्तैनी धंधा होने के कारण मिट्टी के इस काम को मजबूरन आगे बढ़ा रहे हैं, जिससे यह कला विलुप्त ना हो जाए. सुशील देवी बताती हैं कि वह बचपन से ही मिट्टी के बर्तन बना रही हैं. लेकिन अब प्लास्टिक व स्टील के बर्तन की मांग ज्यादा हो गयी है. हम लोगों के बनाए दीए, बर्तन, खिलौने महज मुहूर्त तक ही सीमित रह गए हैं.
"दीवाली में मिट्टी के खिलौने बनते थे और बच्चे उससे खेलते थे. बच्चों के लिए परिजन खिलौने अलग से खरीद कर ले जाते थे, लेकिन अब मोबाइल,वीडियो गेम और इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों के आगे मिट्टी के खिलौने बिल्कुल बंद हो चुके हैं. बिक्री नही होने के वजह से हमलोग भी खिलौने बनाना बंद कर दिया है"-कमलेश, कारीगर
मिट्टी से बनने वाले सामानः करवा, कुल्हड़, मोटर, ग्वालिन, बबुआ, तोता, परई, गुल्लक, गगरी, सुराही, कलश व दीए, कूंडा, गगरी, हंडी, तराजू, घंटी, कछरी, केरमुआ, डोकिया, हंडिया आदि.
रोजी रोटी पर पड़ रहा असरः बदलते परिवेश में इलेक्ट्रिक से चलने वाले फैंसी लाइट और झालर ने कुम्हार परिवार की चिंताएं बढ़ा दी हैं. इस कला में माहिर बुजुर्ग ही बस चाक और आवां से जुड़े हैं. डिमांड कम होने में वजह से नई पीढ़ी ने रोजी रोटी के लिए अन्य विकल्प अपना लिया है. ऐसे में यह कला अब विलुप्त होने की कगार पर आ पहुंची है. कुम्हार, कसगर मिट्टी के बर्तन बनाकर अपनी जीविका चलाते थे. आज आधुनिकता के दौर में मिट्टी के दीए, बर्तन, खिलौनों की मांग कम हो गई है. अब तो बस शारदीय एवं चैत्र नवरात्रि, दीपावली, शादी विवाह पर ही मिट्टी से बने बर्तन बिकते हैं. चाक के सहारे परिवार का गुजारा नामुमकिन है.