भागलपुर: देश-दुनिया में सिल्क शहर (Silk City) के नाम से मशहूर बिहार का भागलपुर अपना पहचान खोता जा रहा है. राज्य में नए उद्योग धंधे नहीं लग रहे हैं, पुराने खस्ताहाल हैं. सरकार ने योजनाएं तो चलाईं हैं लेकिन उसका फायदा भागलपुरी सिल्क उद्योग (Bhagalpuri Silk Industries) के लिए ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रही है. एक वक्त था जब 15000 के लगभग हैंडलूम बुनकर हुआ करते थे, अब महज 3800 पर ही सिमट गए हैं.
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भागलपुरी सिल्क की डिमांड पूरी दुनिया में है. मटका और तसर सिल्क का कोई तोड़ नहीं है. सिल्क के शौकीन इसके लिए मुंह मांगी कीमत देने को तैयार बैठे हैं. यहां के बुनकर डिजाइन देखकर हैंडलूम पर उतार देते हैं. रेशमी शहर के बुनकरों का हुनर बेमिसाल है. फिर भी बुनकरों को इसका कोई सीधा फायदा नहीं हो रहा है. बुनकरों की कमर महंगाई और लॉकडाउन तोड़ चुकी है. राज्य सरकार ने हैंडलूम बुनकरों को 10000 रुपए की सरकारी सहायता पहुंचाई है. फिर भी इससे व्यवस्था पटरी पर नहीं लौटी है.
बुनकर सुनील दास ने बताया कि वो रोजोना कपड़े की बुनाई करने का काम करते हैं. दिनभर में वह 2 मीटर ही कपड़ा बुन पाते हैं. इस तरह वो रोजाना 50 से 60 रुपया ही कमा पाते हैं. आधे पेट खाकर किसी तरह गुजरबसर करते हैं.
'हर दिन दो मीटर रेशम का कपड़ा बुन पाता हूं. मजदूर आदमी हैं साहब. मीटर के हिसाब से पेमेंट मिलता है. इस हिसाब से 50 से 60 रुपए ही दिनभर में कमा पाता हूं'- सुनील दास, बुनकर
बुनकर रूपलाल तांती ने बताया कि उन्हें 10000 सरकारी मदद मिली थी. उस पैसे से खराब पड़े अपने हैंडलूम को ठीक करने में लगा दिया. अब उनके पास पूंजी नहीं बची है. उनकी मांग है कि सरकार को कम से कम 1 लाख रुपए पूंजी देना चाहिए . जिससे कि वह अपने रोजगार को शुरू कर सकें.
'सरकार से दस हजार रुपए की मदद मिली थी. ये राशि बहुत कम थी. इस पैसे से बंद पड़े हैंडलूम को ठीक कराने में ही लग गए. अब उनके पास कोई पूंजी नहीं बची है. काम को शुरू करने के लिए कम से कम सरकार को 1 लाख रुपए की पूंजी देना चाहिए'- रूपलाल तांती, बुनकर
बुनकर कन्हैया दास ने बताया कि वो ये काम बचपन से ही करते आ रहे हैं. इससे कोई आमदनी नहीं हो रही है. बल्कि पेट भरना मुश्किल हो रहा है. साहूकारों से पैसा लेकर धागा खरीदते हैं. उससे हम लोग उबर नहीं पा रहे हैं. बिचौलिए अलग लूट रहे हैं.
'हम लोग इस काम में बचपन से जुड़े हैं. इसमें अब कोई आमदनी नहीं बची है. पेट भरना भी मुश्किल हो रहा है. साहूकार से पैसा लेकर धागा खरीदते हैं. दिन भर मेहनत करते हैं. जो मिलता है साहूकार और बिचौलियों के हिस्से चला जाता है'- कन्हैया दास, बुनकर
बिहार सरकार द्वारा बुनकरों के लिए यूआईडी करने के पहले जिले में 2413 ही हैंडलूम बुनकर थे. यूआईडी कराने के बाद उसकी संख्या बढ़कर करीब 3800 हो गई. थोड़ा प्रोत्साहन मिलने के बाद हैंडलूम बुनकरों की संख्या दोगुनी हो रही है. लेकिन आमदनी नहीं होने के कारण यहां के बुनकरों इस काम को छोड़कर दूसरे काम करने के लिए मजबूर हो रहे हैं.
इस बारे में जल जिला उद्योग केंद्र के महाप्रबंधक रामशरण राम से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हैंडलूम संचालन के लिए सरकार ने 10 हजार रुपए की मदद पहुंचाई है. ये रकम कार्यशील पूंजी के रूप में दिया जा रहा है. महाप्रबंधक उद्योग ने बताया कि यहां बुनकर धागे के लिए बिचौलिए पर निर्भर हैं क्योंकि बुनकरों को कार्यशील पूंजी का अभाव है. सरकार ने 10 हजार रुपए की मदद कार्यशील पूंजी के रूप में दी थी ताकि बुनकर अपना धागा खरीदकर रोजगार बढ़ा सकें और कपड़े को बाजार में बेंच सकें.
'सरकार ने 10 हजार रुपए कार्यशील पूंजी के रूप में बुनकरों को दिए हैं ताकि बुनकर अपना धागा खरीद सकें. यहां पर बुनकर ज्यादातर धागों के लिए बिचौलिए पर ही निर्भर हैं'.- रामशरण राम, महाप्रबंधक, जिला उद्योग केंद्र, भागलपुर
बता दें कि बिहार एक समय जब राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री कृष्ण सिंह थे उस समय देश के सबसे दूसरी बेहतर अर्थव्यवस्था वाला राज्य था. जिसमें सिल्क की बहुत बड़ी हिस्सेदारी थी. लेकिन अन्य सरकारों की गलत नीतियों और इच्छाशक्ति में कमी की वजह से भागलपुर के सिल्क कारखाने धीरे धीरे बंद होते गए.
जिले में रेशम के धागे से तैयार कपड़ों की मांग दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, जापान, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, कनाडा और इंग्लैंड सहित अन्य देशों में है. यहां के बुनकर कपड़े तैयार करने के लिए मटका सिल्क, तसर, नूयाल, घिच्चा, केला रेशम, सूती व लिलेन धागों के साथ विस्कोस का इस्तेमाल करते हैं.
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