भागलपुर: रेशम घर और भागलपुर एक-दूसरे के पर्याय हैं. लेकिन यहां के रेशम बुनकर आज सरकार की अनदेखी की मार झेल रहे हैं. जिले का बुनकर समाज आज भुखमरी के हाल में जीने को मजबूर हैं. जिस भागलपुरी रेशम के कपड़े पहन इंसानी जिस्म में चार चांद लग जाते हैं, उसी रेशम को तैयार करने वाले बुनकरों की जिंदगी में आज अंधेरा छा गया है.
1989 के दंगे के बाद दयनीय हो गई स्थिति
भागलपुर जिला रेशम के बिना अधूरा सा लगता है. लेकिन साल 1989 भागलपुर दंगे के बाद रेशम कारोबार में पूरी तरह से आग लग गई है. जिस भागलपुरी रेशम के धाक पूरी दुनिया में थी, आज वही रेशम स्थानीय बाजार में सिमट कर रह गया है. साथ ही इसे बनाने वाले बुनकर भी किसी तरह से अपनी जिंदगी का गुजर बसर कर रहे हैं.
वर्तमान सरकार बुनकरों की देखरेख में फेल
बुनकरों का कहना है कि जिस रेशम से भागलपुर की पहचान है, मौजूदा सरकार उसी पहचान को जीवंत रखने में फेल हो रही है. इसका फल है कि हमलोग आज भुखमरी के हालात में जिंदगी गुजार रहे हैं. किसी तरीके से अपने परिवार को चला रहे हैं. सरकार ने बुनकर क्रेडिट कार्ड भी दिया. लेकिन उससे बुनकरों को कोई खास फायदा नहीं हो पाया. सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च करके बुनकर सेट भी लोगों के लिए बनवाए लेकिन आज वह खंडहर बन चुका है.
करोड़ों खर्च करने के बावजूद सुधरी नहीं स्थिति
आपको बता दें कि जब 1989 दंगे के बाद बुनकर की स्थिति खराब हो गई थी तो मौजूदा सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च कर बुनकर सेट बनवाए थे. ताकि बुनकर यहां से धागा खरीद कर और गुणकारी कर अपनी जिंदगी को अच्छे से जी सकें. लेकिन, करोड़ों की यह कल्याणकारी योजना भी बुनकरों की जिंदगी को बदलने के लिए नाकाफी रही. नतीजतन अभी भी बुनकरों की स्थिति काफी बदतर है.
हर बार की तरह इस बार भी नेता दिखा रहे सपने
76 साल के शाह अफाक अभी भी बुनकरी कर रहे है और मजबूरी की जिंदगी जी रहे हैं. उन्होंने बताया कि इस बार भी चुनाव में नेता आ रहे हैं और स्थिति को बेहतर बनाने का वादा कर रहे हैं. लेकिन, अब उम्मीद खत्म हो गई है और सब्र का बांध टूट गया है. भागलपुर का चंपानगर इलाके के बुनकर इसी पेशे पर निर्भर हैं और लाखों लोग की जिंदगी बुनकरी के व्यवसाय से चलती है. बावजूद इसके सरकार किसी तरह की कोशिश करती नहीं दिख रही है.