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179 साल पुराना है शियाओं का ये ऐतिहासिक इमामबाड़ा, इमाम हुसैन की याद में होता है यहां भव्य आयोजन - bihar news

भागलपुर का ऐतिहासिक इमामबाड़ा पूर्वी बिहार के शिया मुसलमानों का यह पहला भव्य इमामबाड़ा है. जहां मोहर्रम की दसवीं को पहलाम नहीं होता. बल्कि इसके एक दिन बाद 11वीं को ताजिया पहलाम होता है.

भागलपुर का ऐतिहासिक इमामबाड़ा
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Published : Sep 11, 2019, 1:39 PM IST

भागलपुरः पूरे देश में वैसे तो सभी जगहों पर मोहर्रम मनाया जाता है. लेकिन भागलपुर के असानंपुर में स्थित ऐतिहासिक इमामबाड़ा के मोहर्रम की बात कुछ और है. सन 1840 में सैयद बाबू रजा हुसैन ने इस इमामबाड़े की स्थापना की थी, इस इमामबाड़े को लगभग 179 वर्ष पूरे हो गए हैं. बावजूद इसके इमामबाड़ा की खूबसूरती देखते ही बनती है. मोहर्रम के दिनों में शिया मुसलमान इमामबाड़े में मजलिस मातम और नौहाखानी जैसे कई प्रोग्राम आयोजित करते हैं. जो इमाम हुसैन अलैहीसलाम की शहादत को याद में मनाया जाता है.

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तकरीर करते हुए मौलाना

पूर्वी क्षेत्र के शिया मुसलमानों का है पहला भव्य इमामबाड़ा
पूरे बिहार के पूर्वी क्षेत्र में शिया मुसलमानों का यह पहला भव्य और बड़ा इमामबाड़ा है. मोहर्रम के पूरे महीने यहां पुरुष और महिलाओं की मजलिस होती है. मोहर्रम के दिनों में यहां मजलिस( हुसैन की शहादत का जिक्र) पढ़ने वाले मौलाना डॉक्टर मोहम्मद मुस्लिम कहते हैं कि मुहर्रम इंसानीयत और यजीदीयत के बीच लड़ाई थी. मोहर्रम की दसवीं के दिन घोड़े को सजाकर उसकी जयारत की जाती है. जिसे जुलजना कहते हैं.

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इमामबाड़े में रखी गई ताजिया

जुलजने पर बैठकर की थी इमाम ने यजीद की फौज से जंग
बताया जाता है कि जिस घोड़े पर बैठकर इमाम हुसैन आखिरी बार यजीद की फौज से जंग करने गए थे उसे जुलजना कहा जाता है. इमाम हुसैन और उनके घर वालों पर तीन दिन तक लगातार पानी बंद कर दिया गया था. इस दौरान उनके घोड़े ने भी पानी नहीं पिया था. जंग में इमाम को कत्ल करने के बाद घोड़े को भी तीरों से शहीद कर दिया गया था.

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भागलपुर का ऐतिहासिक इमामबाड़ा

1 दिन बाद होता है यहां ताजिया पहलाम
शिक्षाविद डॉ जॉन ने बताया कि हम लोग इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए उन्हीं के गम में मातम करते हैं. इस बात का जिक्र किया जाता है कि किस तरह से इंसानियत की राह पर चलते हुए इमाम हुसैन ने कर्बला के मैदान में अपनी शहादत दी थी. पूर्वी बिहार के इकलौते सबसे बड़े शिया मुसलमानों के इस इमामबाड़े में आपसी तालमेल कर 1 दिन बाद ताजिया पहलाम किया जाता है, यहां दशमी को शिया समुदाय के लोग पहलाम नहीं करते हैं. भागलपुर में शिया समुदाय के मुसलमानों का सबसे अंतिम में ताजिया जुलुस इसी ऐतिहासिक इमामबाड़े से निकलता है. जो कर्बला के मैदान तक जाता है और वहां ताजिया पहलाम हो जाता है.

भागलपुर का ऐतिहासिक इमामबाड़ा और मातम करते शिया समुदाय के लोग

वर्षों से चली आ रही परंपरा
ऐतिहासिक इमामबाड़े से निकला ताजिये का जुलूस आसपास के सभी जगहों से घूम कर कर्बला के मैदान में पहुंचता है और वहां पहुंचकर ताजिये पर चढ़ाए गए फूल मालाओं को कुएं में डाल दिया जाता है. भागलपुर के शिया समुदाय के लोग शाहजंगी स्थित मैदान में जंजीरी मातम कर अपने शरीर को लहूलुहान कर लेते हैं. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है, जिसे इस ऐतिहासिक इमामबाड़े को स्थापित करने वाले के परिवार के लोग कराते आ रहे हैं.

भागलपुरः पूरे देश में वैसे तो सभी जगहों पर मोहर्रम मनाया जाता है. लेकिन भागलपुर के असानंपुर में स्थित ऐतिहासिक इमामबाड़ा के मोहर्रम की बात कुछ और है. सन 1840 में सैयद बाबू रजा हुसैन ने इस इमामबाड़े की स्थापना की थी, इस इमामबाड़े को लगभग 179 वर्ष पूरे हो गए हैं. बावजूद इसके इमामबाड़ा की खूबसूरती देखते ही बनती है. मोहर्रम के दिनों में शिया मुसलमान इमामबाड़े में मजलिस मातम और नौहाखानी जैसे कई प्रोग्राम आयोजित करते हैं. जो इमाम हुसैन अलैहीसलाम की शहादत को याद में मनाया जाता है.

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तकरीर करते हुए मौलाना

पूर्वी क्षेत्र के शिया मुसलमानों का है पहला भव्य इमामबाड़ा
पूरे बिहार के पूर्वी क्षेत्र में शिया मुसलमानों का यह पहला भव्य और बड़ा इमामबाड़ा है. मोहर्रम के पूरे महीने यहां पुरुष और महिलाओं की मजलिस होती है. मोहर्रम के दिनों में यहां मजलिस( हुसैन की शहादत का जिक्र) पढ़ने वाले मौलाना डॉक्टर मोहम्मद मुस्लिम कहते हैं कि मुहर्रम इंसानीयत और यजीदीयत के बीच लड़ाई थी. मोहर्रम की दसवीं के दिन घोड़े को सजाकर उसकी जयारत की जाती है. जिसे जुलजना कहते हैं.

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इमामबाड़े में रखी गई ताजिया

जुलजने पर बैठकर की थी इमाम ने यजीद की फौज से जंग
बताया जाता है कि जिस घोड़े पर बैठकर इमाम हुसैन आखिरी बार यजीद की फौज से जंग करने गए थे उसे जुलजना कहा जाता है. इमाम हुसैन और उनके घर वालों पर तीन दिन तक लगातार पानी बंद कर दिया गया था. इस दौरान उनके घोड़े ने भी पानी नहीं पिया था. जंग में इमाम को कत्ल करने के बाद घोड़े को भी तीरों से शहीद कर दिया गया था.

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भागलपुर का ऐतिहासिक इमामबाड़ा

1 दिन बाद होता है यहां ताजिया पहलाम
शिक्षाविद डॉ जॉन ने बताया कि हम लोग इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए उन्हीं के गम में मातम करते हैं. इस बात का जिक्र किया जाता है कि किस तरह से इंसानियत की राह पर चलते हुए इमाम हुसैन ने कर्बला के मैदान में अपनी शहादत दी थी. पूर्वी बिहार के इकलौते सबसे बड़े शिया मुसलमानों के इस इमामबाड़े में आपसी तालमेल कर 1 दिन बाद ताजिया पहलाम किया जाता है, यहां दशमी को शिया समुदाय के लोग पहलाम नहीं करते हैं. भागलपुर में शिया समुदाय के मुसलमानों का सबसे अंतिम में ताजिया जुलुस इसी ऐतिहासिक इमामबाड़े से निकलता है. जो कर्बला के मैदान तक जाता है और वहां ताजिया पहलाम हो जाता है.

भागलपुर का ऐतिहासिक इमामबाड़ा और मातम करते शिया समुदाय के लोग

वर्षों से चली आ रही परंपरा
ऐतिहासिक इमामबाड़े से निकला ताजिये का जुलूस आसपास के सभी जगहों से घूम कर कर्बला के मैदान में पहुंचता है और वहां पहुंचकर ताजिये पर चढ़ाए गए फूल मालाओं को कुएं में डाल दिया जाता है. भागलपुर के शिया समुदाय के लोग शाहजंगी स्थित मैदान में जंजीरी मातम कर अपने शरीर को लहूलुहान कर लेते हैं. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है, जिसे इस ऐतिहासिक इमामबाड़े को स्थापित करने वाले के परिवार के लोग कराते आ रहे हैं.

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पूरे देश में वैसे तो सभी जगहों पर मुहर्रम मनाया जाता है लेकिन भागलपुर के असानंदपुर में स्थित ऐतिहासिक इमामबाड़ा की मुहर्रम की बात कुछ और ही है सन 1840 में सैयद बाबू रजा हुसैन ने इस इमामबाड़े की स्थापना की थी इस इमामबाड़े को लगभग 179 वर्ष पूरे हो गए हैं बावजूद इसके इमामबाड़ा की खूबसूरती देखते ही बनती है जब इस इमामबाड़े के पास आप आएंगे तो आपको लगेगा शायद मुहर्रम के लिए ही इस ऐतिहासिक इमामबाड़े का निर्माण कराया गया था मुहर्रम के दिनों में सिया मुसलमानों के द्वारा इमामबाड़ा में मजलिस मातम नौहाखानी जैसे और भी कई प्रोग्राम आयोजित कर इमाम हुसैन अलैही सलाम की शहादत को याद किया जाता है पूरे बिहार के पूर्वी क्षेत्र में शिया मुसलमानों का यह पहला भव्य और बड़ा इमामबाड़ा है मुहर्रम के पूरे महीने यहां पुरुष महिलाओं की मजलिस होती है ।


Body:मुहर्रम के दिनों में अक्सर यहां पहुंचकर मजलिस करने वाले मौलाना डॉक्टर मोहम्मद मुस्लिम कहते हैं कि मुहर्रम इंसान और हैवान की लड़ाई थी आज मोहर्रम की दसवीं है इस दिन हम लोग घोड़े को सजाकर जुरजाना की रस्म करते हैं क्योंकि जब इमाम हुसैन को 3 दिन के लिए पानी नहीं दिया गया था तो उनके घोड़े को लगा कि इनके लिए पानी का इंतजाम करना है तो उस घोड़े में भी इंसानियत थी जिसे हम लोग बताते हैं मुस्लिम समाज के डॉ जॉन जो कि भागलपुर के बड़े शिक्षाविद भी हैं उनका कहना है कि हम लोग इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं और मातम मनाते हैं किस तरह से इंसानियत की राह पर चलते हुए इमाम हुसैन ने कर्बला के मैदान में अपनी शहादत दी थी ।


Conclusion:पूर्वी बिहार के इकलौते सबसे बड़े शिया मुसलमानों के इस इमामबाड़े में आपसी तालमेल कर 1 दिन बाद पहलाम निकाला जाता है इसलिए आज दशमी को शिया समुदाय के लोग पहलाम नहीं निकालते हैं भागलपुर में अंतिम पहलाम शिया समुदाय के मुसलमानों की इसी ऐतिहासिक इमामबाड़े से निकलती है जो कर्बला के मैदान तक जाती है ऐतिहासिक इमामबाड़े से ताजिया का जुलूस आसपास के सभी जगहों से घूम कर कर्बला के मैदान में कुएं में दफन किया जाता है भागलपुर के शाहजंगी स्थित मैदान में जंजीरी मार-मार कर अपने शरीर को लहूलुहान कर शिया समुदाय के मुसलमान मातम मनाते हैं यह परंपरा आज वर्षों से चली आ रही है जिसे इस ऐतिहासिक इमामबाड़े को स्थापित करने वाले लोगों के परिवार करते आ रहे हैं

बाइट मौलाना मोहम्मद डॉक्टर मुस्लिम
बाइट प्रोफेसर जॉन शिक्षाविद भागलपुर
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