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भागलपुर: कतरनी की सुगंध पड़ी फीकी, सिंचाई के अभाव में किसान छोड़ रहे खेती

भागलपुर के किसान चांदन और चंपा नदी के किनारे स्वादिष्ट और सुगंधित कतरनी की खेती करते आ रहे हैं. लेकिन अब यह पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है. यहां के किसान अब दूसरी फसलों को उपजा रहे हैं.

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Published : Jun 10, 2020, 6:26 PM IST

Updated : Jun 13, 2020, 4:35 PM IST

भागलपुर: प्रसिद्ध कतरनी किसी परिचय का मोहताज नहीं है. पूरे देश भर में कतरनी की सुगंध को लोग भली-भांति जानते हैं. प्राचीन काल से ही यहां के प्रसिद्ध चांदन और चंपा नदी के किनारे कतरनी की खेती की जाती रही है. जगदीशपुर इलाके में खासतौर पर तैयार की जाने वाली कतरनी समय के साथ-साथ धीरे-धीरे एक खास दायरे में सिमटती जा रही है. आलम यह है कि जिस इलाके में लोग कतरनी की खेती करते थे, वे लोग अब साग-सब्जी और आम का उत्पादन कर रहे हैं.

बिहार कृषि विश्वविद्यालय सबौर ने एक खास किस्म की कतरनी का इजाद किया है. इसका दाना थोड़ा छोटा और मोटा होता है, जबकि पहले की कतरनी पतली और लंबी हुआ करती थी, जिसकी खासियत स्वादिष्ट होने के साथ-साथ दूर-दूर तक फैलने वाली खुशबू भी थी. लेकिन अब यह पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है.

मकर संक्रांति एवं आम के दिनों में बढ़ती है मांग
मकर संक्रांति और आम के दिनों में कतरनी चूड़े की मांग काफी ज्यादा बढ़ जाती है. मकर संक्रांति में ग्राहकों की भारी भीड़ बाजार में कतरनी खरीदने के लिए जुट जाती है. वहीं, कई लोग आम के मौसम में जरदालु आम के साथ कतरनी चूड़ा खाना पसंद करते हैं, इसलिए आम के मौसम में भी कतरनी की मांग काफी ज्यादा बढ़ जाती है.
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देशभर में मशहूर है कतरनी धान
कतरनी की खेती में हो रहा नुकसान
कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक भागलपुर में वर्तमान में कुल 8 गांव में सिर्फ 250 के आसपास किसान ही कतरनी धान और बीज का उत्पादन कर रहे हैं. जगदीशपुर प्रखंड अंतर्गत मक्ससपुर में सिर्फ एक ही आदमी इस परंपरागत खेती को कर रहे हैं. मक्ससपुर के रहने वाले पुतुल पांडे बताते हैं कि पूरे गांव में सिर्फ वही एक आदमी हैं जो कतरनी की खेती कर रहे हैं. अगर उनकी माने तो आजकल के दौर में कतरनी की खेती करना खुद का नुकसान उठाना है. इसके अलावा कुछ भी फायदा इस धान को उपजाने में नहीं है.
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कतरनी धान

सिमट गई कतरनी की खेती
हालांकि कुछ लोग अपनी पुरानी परंपरा को अपनी अहम जिम्मेदारी समझते हुए इसे आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. इन्ही में से एक है पुतुल पांडे. कतरनी की खेती जितने बड़े खेतों में की जाती है उस हिसाब से कतरनी धान का पैदावार बहुत ही ज्यादा कम होता है. 0.081754681 भूमि में लगभग 8 क्विंटल कतरनी की खेती होती है और इसके धान के पौधे भी काफी संवेदनशील होते हैं. कतरनी खराब मौसम के उतार-चढ़ाव को बर्दाश्त नहीं कर सकती है और फसल जल्द खराब हो जाती है. कभी हजार एकड़ से ज्यादा में पैदा होने वाली कतरनी धान अब लगभग 300 एकड़ भूमि तक सिमट कर रह गई है.

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दूसरी फसल की खेती करने को किसान मजबूर

हर 3 साल में बदली जाती है कतरनी
किसान एक बार बीज को खरीद कर 3 साल तक लगातार उसी बीज से कतरनी का उत्पादन करते हैं. 3 साल के बाद अगर उसी बीज से फिर किसान कतरनी का उत्पादन करेंगे तो काफी ज्यादा मोटा कतरनी का धान का पैदावार होने लगती है. इसलिए हर 3 साल में किसान कतरनी के बीज को बदल देते हैं, फिर से नए बीज से कतरनी की खेती करते हैं.

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नहीं मिल रही सिंचाई की उचित सुविधा
दूसरी फसलों को उपजा रहे किसान
पिछले 10 सालों से बिहार कृषि विश्वविद्यालय, जगदीशपुर इलाके के किसानों को छोटे दाने के बीज उपलब्ध करा रहा है. छोटे दाने की कतरनी की पैदावार सिंचाई के अभाव की वजह से सही रूप से नहीं हो पाती है. कतरनी की वास्तविक बीज अब उपलब्ध नहीं हो पा रही है. अभी जो बीज दी जा रही है, वह छोटे दाने की बीज है. इसलिए पैदावार के बाद धान के दाने भी काफी छोटे-छोटे होते हैं. लेकिन पहले जिस कतरनी का उत्पादन किया जाता था, उसके दाने लंबे हुआ करते थे और दूर से ही उसकी खुशबू फैल जाती थी. लेकिन अभी जो धान उपलब्ध कराया जा रहा है खुशबू उसमें भी है लेकिन खेतों के हिसाब से पैदावार कम होने की वजह से जगदीशपुर इलाके के लोगों ने कतरनी छोड़कर दूसरी फसलें उपजाना शुरू कर दिया है.
देखें पूरी रिपोर्ट

सिंचाई व्यवस्था की मांग
अवैध बालू उठाव की वजह से चांदन नदी पूरी तरह से मृत प्राय हो गई है. इस कारण जगदीशपुर के किसानों को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. किसान पूरी तरह से बारिश पर निर्भर हो गए हैं. बारिश होती है तो किसान की फसल अच्छी होती है और अगर बारिश नहीं हुई तो किसानों की लाखों की फसल बर्बाद हो जाती है. इसलिए इलाके के किसान ने हमेशा चेक डैम बनवाने की मांग की है. सीमित सिंचाई के साधन की वजह से कतरनी पूरी तरह से प्रभावित हो जाती है. लेकिन अभी तक किसी प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं की गई है.

कतरनी को मिला है जियो टैग
केंद्र सरकार ने 2017 में भागलपुर की कतरनी को जियो का (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) टैग दिया था. इसका उद्देश्य बाजार में उत्पादों को प्रमुखता दिलाने का था. लेकिन, राज्य सरकार की उदासीनता ने कतरनी को विलुप्त होने के कगार पर ला दिया है. किसान भी करीब 10 सालों से सरकार की तरफ उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सरकार सिंचाई की कोई समुचित व्यवस्था करेगी ताकि कतरनी पुराने अंदाज में लौटकर पूरे देश में अपनी खुशबू बिखेर सके.

भागलपुर: प्रसिद्ध कतरनी किसी परिचय का मोहताज नहीं है. पूरे देश भर में कतरनी की सुगंध को लोग भली-भांति जानते हैं. प्राचीन काल से ही यहां के प्रसिद्ध चांदन और चंपा नदी के किनारे कतरनी की खेती की जाती रही है. जगदीशपुर इलाके में खासतौर पर तैयार की जाने वाली कतरनी समय के साथ-साथ धीरे-धीरे एक खास दायरे में सिमटती जा रही है. आलम यह है कि जिस इलाके में लोग कतरनी की खेती करते थे, वे लोग अब साग-सब्जी और आम का उत्पादन कर रहे हैं.

बिहार कृषि विश्वविद्यालय सबौर ने एक खास किस्म की कतरनी का इजाद किया है. इसका दाना थोड़ा छोटा और मोटा होता है, जबकि पहले की कतरनी पतली और लंबी हुआ करती थी, जिसकी खासियत स्वादिष्ट होने के साथ-साथ दूर-दूर तक फैलने वाली खुशबू भी थी. लेकिन अब यह पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है.

मकर संक्रांति एवं आम के दिनों में बढ़ती है मांग
मकर संक्रांति और आम के दिनों में कतरनी चूड़े की मांग काफी ज्यादा बढ़ जाती है. मकर संक्रांति में ग्राहकों की भारी भीड़ बाजार में कतरनी खरीदने के लिए जुट जाती है. वहीं, कई लोग आम के मौसम में जरदालु आम के साथ कतरनी चूड़ा खाना पसंद करते हैं, इसलिए आम के मौसम में भी कतरनी की मांग काफी ज्यादा बढ़ जाती है.
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देशभर में मशहूर है कतरनी धान
कतरनी की खेती में हो रहा नुकसान
कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक भागलपुर में वर्तमान में कुल 8 गांव में सिर्फ 250 के आसपास किसान ही कतरनी धान और बीज का उत्पादन कर रहे हैं. जगदीशपुर प्रखंड अंतर्गत मक्ससपुर में सिर्फ एक ही आदमी इस परंपरागत खेती को कर रहे हैं. मक्ससपुर के रहने वाले पुतुल पांडे बताते हैं कि पूरे गांव में सिर्फ वही एक आदमी हैं जो कतरनी की खेती कर रहे हैं. अगर उनकी माने तो आजकल के दौर में कतरनी की खेती करना खुद का नुकसान उठाना है. इसके अलावा कुछ भी फायदा इस धान को उपजाने में नहीं है.
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कतरनी धान

सिमट गई कतरनी की खेती
हालांकि कुछ लोग अपनी पुरानी परंपरा को अपनी अहम जिम्मेदारी समझते हुए इसे आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. इन्ही में से एक है पुतुल पांडे. कतरनी की खेती जितने बड़े खेतों में की जाती है उस हिसाब से कतरनी धान का पैदावार बहुत ही ज्यादा कम होता है. 0.081754681 भूमि में लगभग 8 क्विंटल कतरनी की खेती होती है और इसके धान के पौधे भी काफी संवेदनशील होते हैं. कतरनी खराब मौसम के उतार-चढ़ाव को बर्दाश्त नहीं कर सकती है और फसल जल्द खराब हो जाती है. कभी हजार एकड़ से ज्यादा में पैदा होने वाली कतरनी धान अब लगभग 300 एकड़ भूमि तक सिमट कर रह गई है.

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दूसरी फसल की खेती करने को किसान मजबूर

हर 3 साल में बदली जाती है कतरनी
किसान एक बार बीज को खरीद कर 3 साल तक लगातार उसी बीज से कतरनी का उत्पादन करते हैं. 3 साल के बाद अगर उसी बीज से फिर किसान कतरनी का उत्पादन करेंगे तो काफी ज्यादा मोटा कतरनी का धान का पैदावार होने लगती है. इसलिए हर 3 साल में किसान कतरनी के बीज को बदल देते हैं, फिर से नए बीज से कतरनी की खेती करते हैं.

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नहीं मिल रही सिंचाई की उचित सुविधा
दूसरी फसलों को उपजा रहे किसान
पिछले 10 सालों से बिहार कृषि विश्वविद्यालय, जगदीशपुर इलाके के किसानों को छोटे दाने के बीज उपलब्ध करा रहा है. छोटे दाने की कतरनी की पैदावार सिंचाई के अभाव की वजह से सही रूप से नहीं हो पाती है. कतरनी की वास्तविक बीज अब उपलब्ध नहीं हो पा रही है. अभी जो बीज दी जा रही है, वह छोटे दाने की बीज है. इसलिए पैदावार के बाद धान के दाने भी काफी छोटे-छोटे होते हैं. लेकिन पहले जिस कतरनी का उत्पादन किया जाता था, उसके दाने लंबे हुआ करते थे और दूर से ही उसकी खुशबू फैल जाती थी. लेकिन अभी जो धान उपलब्ध कराया जा रहा है खुशबू उसमें भी है लेकिन खेतों के हिसाब से पैदावार कम होने की वजह से जगदीशपुर इलाके के लोगों ने कतरनी छोड़कर दूसरी फसलें उपजाना शुरू कर दिया है.
देखें पूरी रिपोर्ट

सिंचाई व्यवस्था की मांग
अवैध बालू उठाव की वजह से चांदन नदी पूरी तरह से मृत प्राय हो गई है. इस कारण जगदीशपुर के किसानों को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. किसान पूरी तरह से बारिश पर निर्भर हो गए हैं. बारिश होती है तो किसान की फसल अच्छी होती है और अगर बारिश नहीं हुई तो किसानों की लाखों की फसल बर्बाद हो जाती है. इसलिए इलाके के किसान ने हमेशा चेक डैम बनवाने की मांग की है. सीमित सिंचाई के साधन की वजह से कतरनी पूरी तरह से प्रभावित हो जाती है. लेकिन अभी तक किसी प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं की गई है.

कतरनी को मिला है जियो टैग
केंद्र सरकार ने 2017 में भागलपुर की कतरनी को जियो का (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) टैग दिया था. इसका उद्देश्य बाजार में उत्पादों को प्रमुखता दिलाने का था. लेकिन, राज्य सरकार की उदासीनता ने कतरनी को विलुप्त होने के कगार पर ला दिया है. किसान भी करीब 10 सालों से सरकार की तरफ उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सरकार सिंचाई की कोई समुचित व्यवस्था करेगी ताकि कतरनी पुराने अंदाज में लौटकर पूरे देश में अपनी खुशबू बिखेर सके.

Last Updated : Jun 13, 2020, 4:35 PM IST
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