जयपुर: राजधानी में फागोत्सव का दौर शुरू हो गया है. हालांकि फागोत्सव जयपुर के लिए नया नहीं बल्कि यहां की विरासत से जुड़ा हुआ है. जयपुर में जब ब्रज से गोविंद देव जी, गोपीनाथ जी के विग्रह को लाया गया था, तब फागोत्सव भी ब्रज से साथ आया. तभी से छोटी काशी में फागोत्सव का दौर चला आ रहा है. उस दौर में राज परिवार भी इस आयोजन में शरीक होता था और आज दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, अहमदाबाद जैसे शहरों से आकर कलाकार ठाकुर जी के समक्ष हाजिरी लगाते हैं.
ऐसे जयपुर आई ये परंपरा: फाल्गुन का महीना हो और फागोत्सव की बात न हो, तो बेमानी सा लगता है. पतझड़ के बाद बसंत में आने वाले फूलों से ठाकुर जी को नहलाते हुए त्योहार मनाना ब्रज की परंपरा रही है. इसी परंपरा से जयपुर भी जुड़ा हुआ है. इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि जब ब्रज से गोविंद देव जी, गोपीनाथ जी के विग्रह जयपुर आए, तब ये परंपरा ब्रज से निकलकर जयपुर तक आई. ऐसे गौड़ीय संप्रदाय के मंदिर जहां भगवान कृष्ण के ब्रज स्वरूप का दर्शन होता है, वहां फागोत्सव भी ब्रज के अंदाज में ही मनाया जाता है. ब्रजनिधि मंदिर का तो मंडप ही विशेषकर फागोत्सव के नजरिए से ही बनाया गया. इसी तरह के मंदिर आनंद कृष्ण बिहारी, रामचंद्र जी का मंदिर भी हैं.
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राजपरिवार रहता था उपस्थित: उन्होंने बताया कि फागोत्सव सवाई जयसिंह के समय से मनाया जाता रहा है और सवाई प्रताप सिंह के समय फागोत्सव ने सर्वोच्च ऊंचाई प्राप्त की. फाल्गुन के महीने में ठाकुर जी के उत्सव होते थे. उन उत्सव में भगवान को फूलों का शृंगार कराया जाता था. संपन्न व्यक्ति फूलों की उछाल करते थे. जयपुर के महाराजा इस पर्व में शामिल हुआ करते थे. सवाई प्रताप सिंह के समय का उल्लेख मिलता है कि प्रताप सिंह खुद फागोत्सव में गोविंद देव जी के दरबार में उपस्थित हुए और वहां उन्होंने गोविंद देव जी को फूलों से नहलाया. फिर गोविंद देव जी के महंत और पुजारी ने जयपुर के महाराजा को फूलों से नहलाया.
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हर रंग का अलग महत्व: देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि पहले फागोत्सव पर ठाकुर जी को अर्पित फूल जब पुराने हो जाते थे, तो उन्हें पीसकर अबीर बनाया जाता था. इन्हीं से होली का त्योहार मनाया जाता था. आजादी से पहले ये सिर्फ रंगों का और फूलों का त्योहार हुआ करता था. जब फाल्गुन का महीना उतरता था, तब बकायदा ठाकुर जी के हर दिन, हर पहर, हर झांकी के अलग गीत होते थे. ठाकुर जी को लगाए जाने वाले हर रंग का भी अपना एक अलग महत्व हुआ करता था. धूप की झांकी में बाकायदा उन रंगों को ठाकुर जी के सामने पेश किया जाता था. छोटे-छोटे मंदिरों से लेकर हर समर्थ व्यक्ति अपने परिवार के साथ एक फागोत्सव जरूर मनाते थे. हालांकि आजादी के बाद फागोत्सव ने कई स्वरूप बदल लिए हैं.
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वहीं वर्तमान समय में होने वाले फागोत्सव के आयोजक गौरव धामाणी ने बताया कि ठाकुर जी के मंदिर में फागोत्सव के विभिन्न कार्यक्रम शुरू होते हैं. लेकिन पारंपरिक फागोत्सव 7, 8 और 9 मार्च को आयोजित होगा. जो तिथि के अनुसार फाल्गुन महीने की अष्टमी, नवमी और दशमी को होता है. पारंपरिक फागोत्सव के कार्यक्रम में करीब 500 कलाकार भाग लेंगे. जिसमें कथक, लट्ठमार होली, पुष्प होली जैसे आयोजन होंगे. जिसमें कई पीढ़ियों से कलाकार सेवाएं देंगे. दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, अहमदाबाद से भी कलाकार आकर यहां ठाकुर जी के समक्ष हाजिरी देंगे.
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उन्होंने बताया कि ये परंपरा कई दशकों से चली आ रही है और इस परंपरा को पहले राजा-महाराजा निभाते थे और अब धीरे-धीरे इसका स्वरूप बदला है. आज कलाकारों की टोली फाग उत्सव में रंग घोलती है. वहीं होलिका दहन वाले दिन रंग गुलाल से होली खेली जाती है. कोविड के दौर के बाद होली और धूलंडी पर ठाकुर जी के दरबार में पैर रखने की जगह तक नहीं मिलती. यहां लाखों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं और इन दो दिन में ठाकुर जी के मंदिर में पूरा ब्रज उतर आता है.
बहरहाल, भगवान गोविंद देव जी के दरबार में रचना झांकी से फागोत्सव का दौर शुरू होता है. जिसमें ठाकुर जी का पूरा शृंगार गुलाल और अबीर से होता है. भगवान की पोशाक को मंदिर के ही सेवादार तैयार करते हैं. इसी रचना झांकी के दौरान ठाकुर जी की विभिन्न लीलाओं को भी रंगों के माध्यम से कपड़े पर उकेरा जाता है. इसी के साथ शहरवासी फागोत्सव के रंग में भी रंग जाते हैं.