पटनाः संघर्ष की राह पर चलते हुए बिहार की सियासत में अपनी खास पहचान बनानेवाले सुशील कुमार मोदी अब हमारे बीच नहीं रहे. सोमवार को दिल्ली के AIIMS में उन्होंने अंतिम सांस ली और बिहार की राजनीति में एक शून्य छोड़ गये. बिहार में बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभानेवाले सुशील मोदी के जीवन में एक बार ऐसा भी आया जब उन्होंने सक्रिय राजनीति को छोड़ने का मन बना लिया था.
छात्र जीवन से ही सियासत में दिलचस्पीः कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही सुशील मोदी को सियासत में दिलचस्पी हो गयी थी और वे एबीवीपी से जुड़ गये थे. 1973 में उन्होंने छात्रसंघ का चुनाव लड़ा और पटना यूनिवर्सिटी छात्र संघ के महासचिव चुन लिए गये. उसके बाद छात्र आंदोलन के दौरान बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और इमरजेंसी के दौरान 19 महीने जेल में भी रहे.
जब जातीय राजनीति से निराश हुए मोदीः छात्र राजनीति में सिक्का जमाने के बाद बिहार की सक्रिय राजनीति में आए सुशील मोदी शुरुआती दिनों में उस समय निराश हो गये जब उन्हें लगा कि सियासत में जाति का बोलबाला है. बीजेपी नेता और 1984 में छात्रसंघ का चुनाव लड़ चुके वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद कुमार बताते हैं कि उन्हें लगने लगा था कि जातीय समीकरण में उनकी राजनीति फिट नहीं बैठेगी.
दवा की दुकान चलाने लगे थे सुशील मोदीः अरविंद कुमार बताते हैं कि सुशील मोदी बिहार की जातीय राजनीति से इस कदर निराश हो गये कि उन्होंने न सिर्फ सक्रिय राजनीति छोड़ने का मन बना लिया बल्कि पीएमसीएच के सामने अपने पारिवारिक दवा की दुकान पर बैठने भी लगे थे.
1990 में मिला टिकट और बने विधायकः हालांकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से वो लगातार जुड़े रहे और दूसरे छात्रों को अपना मार्गदर्शन भी देते रहे. इस बीच 1990 में बीजेपी ने उन्हें तब पटना मध्य से टिकट दिया और उस चुनाव में जीत हासिल कर वो विधायक बन गये. इतना ही नहीं उन्हें विधायक दल का मुख्य सचेतक भी बनाया गया.
चारों सदनों के सदस्य रहे सुमोः 1990 में विधायक बनने के बाद तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गये. 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने भागलपुर लोकसभा सीट से भी जीत दर्ज की वहीं 2005 में वे बिहार विधानपरिषद के लिए चुने गये और नीतीश सरकार में डिप्टी सीएम बने. वहीं 2020 में वे राज्यसभा के लिए भी चुने गये. यानी सुशील मोदी को चारों सदनों के सदस्य होने का गौरव प्राप्त हुआ.