वाराणसी : जिले में स्थित सीर गोवर्धन एक ऐसा तीर्थ माना जाता है, जहां पर हर राजनीतिक दल का व्यक्ति मत्था टेकने जरूर जाता है. कहा जाता है कि यह ऐसी सियासी कड़ी है जो उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि आसपास के राज्यों को भी जोड़कर रखती है. यही वजह है कि पीएम मोदी हों, राहुल गांधी या फिर अरविंद केजरीवाल, हर व्यक्ति यहां आकर शीश जरूर नवाकर गया है. इसे वोट की एक बड़ी चाबी के तौर पर भी देखा जा सकता है. सीर गोवर्धन संत रविदास जी की जन्मस्थली है. ऐसे में यहां से देशभर के अनुयायियों की श्रद्धा जुड़ी है. देशभर से लोग तो आते ही हैं, लेकिन चुनावी साल में राजनीतिक दल भी खूब आते हैं.
देश के प्रधानमंत्री और वाराणसी से सांसद नरेंद्र मोदी 22 फरवरी को वाराणसी दौरे पर आ रहे हैं. वे यहां पर ₹14 हजार करोड़ से अधिक की योजनाओं की सौगात देकर जाएंगे, लेकिन इससे पहले प्रधानमंत्री सीर गोर्वधन जाएंगे. जहां पर संत रविदास की प्रतिमा का अनावरण करेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे. इस दौरान पंजाब से भी लोग यहां पर पहुंच रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी सीर गोवर्धन मंदिर के कायाकल्प के लिए शिलान्यास किया था. अब वे यहां पर भव्य प्रतिमा का अनावरण कर एक बड़ा जातिगत संदेश देने जा रहे हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि संत रविदास की जन्म स्थली प्रधानमंत्री के लिए ही नहीं अन्य नेताओं के लिए भी इतना जरूरी क्यों है?
मायावती ने दलित वोटरों में बनाई थी पकड़ : राजनीतिक विश्लेषक रवि प्रकाश पांडेय कहते हैं कि उत्तर प्रदेश की राजनीति जितनी आसान दूर से देखने में लगती है. उतनी है नहीं. यहां पर एक-एक सीट का हिसाब रखना होता है. सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है वोटरों को साधने की. कौन दलित है, कौन ओबीसी, कौन ब्राह्मण. इसके बाद पार्टी की रणनीति तय होती है. उत्तर प्रदेश में लगभग 22 प्रतिशत दलित हैं. ऐसे में हर सीट के लिए इस वोट बैंक को साधना जरूरी हो जाता है. अगर किसी भी पार्टी ने इन्हें साइड लाइन करने की कोशिश की तो उसे एकतरफा हार का सामना भी करना पड़ता है. इस वोट बैंक की कीमत बसपा प्रमुख मायावती समझती रही हैं. उन्होंने इसकी बदौलत अपनी सरकार बनाई है. उनकी दलित वोटर्स पर काफी अच्छी पकड़ी थी.
22 फीसदी दलितों को साधने में लगीं पार्टियां : उनका कहना है कि, दलित वोटर्स को लेकर सभी पार्टियां अपना हक समझती रही हैं. समाजवादी पार्टी, बसपा, कांग्रेस या फिर भाजपा. सभी ने खुद को दलितों का हितैषी बताया है. इनका फायदा भी चुनाव-दर-चुनाव सभी ने उठाया भी है. मगर धीरे-धीरे साल 2014 के बाद जब भाजपा ने अपना राजनीतिक का तरीका बदला तो अच्छा खासा दलित वोट भाजपा के पाले में आना शुरू हो गया. रवि प्रकाश बताते हैं कि, यूपी का 22 फीसदी दलित समाज दो हिस्सों में बंटा है. जाटव आबादी करीब 12 फीसदी है, जबकि 10 फीसदी गैर-जाटव दलित हैं. वहीं, सपा भी अब यादव-मुस्लिम के साथ-साथ दलित और अति पिछड़े वर्ग को जोड़ने में लगी है.
सीर गोवर्धन से अच्छा मौका कोई और नहीं : उनका कहना है कि इस समय अगर बनारस की बात करें तो यह पूरे पूर्वांचल को कवर करता है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि बनारस में अगर कोई बेहतर तैयारी करता है तो पूर्वांचल के जिलों में भी असर कर सकेगा. ऐसे में दलितों को साधने का इससे अच्छा मौका भाजपा को और कभी नहीं मिलेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय मंदिरों के उद्घाटन के साथ ही संत रविदास की प्रतिमा का अनावरण कर ये साबित करने में सफल हो सकते हैं कि उनकी राजनीति सभी के लिए है, जिसमें दलित भी शामिल हैं. आपको याद दिला दें कि पीएम मोदी ने दिल्ली के करोलबाग स्थित श्री गुरु रविदास विश्राम धाम मंदिर में महिलाओं के साथ झांझ बजाते हुए शबद कीर्तन किया था.
मायावती के बाद पीएम मोदी ने कराया विकास कार्य : राजनीतिक विश्लेषक रवि प्रकाश पांडेय कहते हैं कि, प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी इसी सीर गोवर्धन में आकर जमीन पर बैठकर प्रसाद ग्रहण कर रहे थे. इसके बाद आज यही भाजपा संत रविदास की विश्व की सबसे बड़ी और भव्य प्रतिमा का अनावरण करने जा रही है. ऐसे में भाजपा के प्रति किसी न किसी तरीके से इस समाज का मोह बढ़ना लाजमी है. उन्होंने कहा कि, पीएम मोदी ने साल 2019 में इस मंदिर में दर्शन-पूजन के बाद लगभग 50 करोड़ की योजनाओं की सौगात दी थी. यहां पर एक सत्संग हॉल बनाया गया. इसके साथ ही मंदिर का कायाकल्प किया गया है. ऐसी ही राजनीति मायावती की थी. उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान मंदिर के कायाकल्प के लिए स्वर्ण पालकी, स्वर्ण शिखर और मंदिर के विस्तार की रूपरेखा तैयार की.
2014 और 2019 में क्या थी दलित सीटों की स्थिति : उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश में आरक्षित लोकसभा सीटों की संख्या 17 है. इसके साथ ही 21 से 22 फीसदी दलित वोट बैंक कई सीटों पर हार-जीत का फैसला करने के लिए काफी हैं. वहीं, दलितों में सबसे अधिक संख्या जाटव समुदाय की है. जाटव की कुल संख्या कुल दलित जनसंख्या की आधी से अधिक मानी जाती है. अगर सीटों के आंकड़ों पर बात करें तो साल 2014 के चुनाव में इसका असर कुछ ऐसा था कि भाजपा दलितों को लेकर सभी आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि साल 2019 के चुनाव में इन्हीं सीटों में से 15 सीटें भाजपा को मिली थीं. जो दो सीटें छूट गईं उन पर बसपा ने अपनी जीत दर्ज की थी. ऐसे में यह भी समझा जा सकता है कि दलितों का वोट भाजपा की तरफ खिसका है.
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