दंतेवाड़ा: शीतला माता मंदिर प्रांगण में मंगलवार को इंद्रदेव के स्वरूप भीमा भीमसेन और भीमे डोकरी का विवाह कराया गया. तीन साल में हर साल जुलाई के पहले हफ्ते में माटी पुजारियों की उपस्थिति में ये शादी कराई जाती है. भीमा भीमसेन विवाह में वो सारी रस्में होती हैं जो एक महिला और पुरुष की शादी में की जाती है. शादी में दहेज भी दिया जाता है. इस साल हुए भीमसेन जात्रा में 84 गांव के लोग शामिल हुए.
बारिश के लिए होती है भीमा भीमसेन जात्रा: शीतला माता मंदिर समिति के अयक्ष राजाराम नाग ने बताया " तीन साल में एक बार बिरल भीमसेन व भीमे डोकरी विवाह रस्म पूरी कराई जाती है. हमारे दादा-परदादाओं के समय से यह परंपरा चली आ रही है जिसे हम आज भी निभा रहे हैं. इसमें दुल्हा के रूप में बिरल भीमसेन व दुल्हन के रूप में भीमे डोकरी होते हैं. इनकी विवाह रस्म अदायगी से पहले दोनों पक्षों के सदस्य साथ मिलकर मरकानार के जंगलों में जाते हैं. महुआ की पेड़ को नीचे से काटकर दो अलग अलग बराबर साइज की तीन तीन फीट की मोटी लकड़ी जुटाते हैं.इस काम को उपवास के साथ किया जाता है. महुए की लकड़ी का ही बिरल भीमसेन व भीमे डोकरी स्वरूप में विवाह करवाया जाता है."
महुए की दो लकड़ियों का कराया जाता है विवाह: विवाह के दिन सबसे पहले दोपहर में माई दंतेश्वरी मंदिर के पुजारियों की उपस्थिति में भीमसेन व भीमे देवी स्वरूप लकड़ी को दंतेश्वरी तालाब में नहलाकर उसे शुद्ध किया जाता है. इसके बाद छेका पूजा होती है. इसके बाद शीतला माता मंदिर प्रांगण के मंडप में लाकर बाजा मोहरी की थाप पर विवाह रस्म की शुरूआत की जाती है. महिला पुरुष के विवाह की ही तरह सारी रस्में जैसे तेल-हल्दी लगाना, जनेऊ संस्कार, विवाह मंडप, सात फेरे लेने समेत दहेज तक लेने की परंपरा निभाई जाती है. इस दौरान सिरहा लोग बाराती बनकर दुल्हा दुल्हन को आर्शीवाद देते हैं.
नाई और कुम्हार पक्ष के लोग शादी में होते हैं शामिल: दूल्हा पक्ष से कुम्हार और दुल्हन पक्ष से नाई परिवार के लोग शादी में शामिल होते हैं. शीतला मंदिर में विवाह रस्म अदायगी के बाद एक बार फिर दुल्हा दुल्हन स्वरूप लकड़ी को तालाब में स्नान कराया जाता है. उसके बाद फिर से विवाह की कुछ रस्में निभाई जाती है. फिर दुल्हा बिरल भीमसेन व दुल्हन भीमे डोकरी को बाजा मोहरी के थाप के साथ रेस्ट हाउस के बाजू में स्थित डोंगरदेव स्थल पर ले जाया जाता है.
डोंगरदेव चबूतरा स्थल पर शीतला माता मंदिर के मुख्य पुजारी चावल, फूल, अंडा रख उस पर जल चढ़ाकर पूजा अर्चना करते हैं. इस दौरान उपस्थित भक्त अपने साथ लाए मुर्गे और मुर्गियों को पुजारी को देते हैं. पुजारी एक एककर मुर्गे मुर्गियों को भीगा हुआ चावल खिलाते हैं. इस तरह से भीमा भीमसेन विवाह संपन्न होता है.
अच्छी बारिश और पैदावार के लिए जात्रा: मंदिर समिति के अयक्ष राजाराम ने अंत में बताया कि इस परंपरा को निभाने के लिए इसमें होने वाले खर्च का सहयोग क्षेत्र की जनता से लिया जाता है. इस विवाह का उद्देश्य इंद्रदेव को प्रसन्न कर क्षेत्र में अच्छी बारिश, फसल की भरपुर पैदावार, रोगमुक्त पशु और क्षेत्र की जनता के सुख और शांति के लिए किया जाता है. रियासतकालीन इस परंपरा को आज भी निभाया जा रहा है. 24 परगनाओं से मांझी, चालकी, पेरमा, समरथ, गायता, कुहार, सिरहा, नाईक, पडियार, मंदिर के सेवादार और माटी पुजारी उपस्थित रहे.