गया: बिहार के गया में एक गांव है, जिसका नाम लाल सलाम है. लाल सलाम नाम होना लोगों को चौंकाता है, क्योंकि नक्सलवाद से जुड़े लोग 'लाल सलाम' शब्द का प्रयोग अभिवादन या फिर नारा के रूप में करते हैं. लाल सलाम सुनते ही नक्सल संगठन की ओर ध्यान चला जाता है. यहां हम जिस लाल सलाम की कहानी बताने जा रहे हैं उसका संबंध भी नक्सलियों से है. गया जिले की एक पंचायत बरसौना स्थित इस गांव का इतिहास क्या है. कैसे इसका नाम 'लाल सलाम' पड़ा, इसके बारे में जानते हैं.
लाल सलाम क्या होता हैः 'लाल सलाम' एक लोकप्रिय क्रांतिकारी अभिवादन है. आमतौर पर वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग इस्तेमाल करते हैं. यहां 'लाल' रंग के प्रतीक के रूप में समाजवाद, साम्यवाद और मजदूर वर्ग के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है. जबकि 'सलाम' सम्मान और एकता का संकेत है. 'लाल सलाम' का प्रयोग संघर्ष और समानता के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए किया जाता है.
"नक्सली कमांडर के नाम से स्मारक भी है. पहले यहां नक्सलियों का प्रभाव था लेकिन अब नहीं है, लोग अपनी मर्जी से स्मारक बनाकर रखे हुए हैं, क्षेत्र में विकास भी हुआ है, जिस स्थान पर रामा शंकर लाल की मृत्यु हुई थी उस स्थान पर पहले कुछ नहीं था, अब घर दुकान बन गए हैं."- पवन कुमार, स्थानीय
लाल सलाम नाम क्यों पड़ाः टनकुप्पा प्रखंड में बरसौना पंचायत के रामा शंकर लाल नक्सली संगठन के एरिया कमांडर थे. 1984 में पुलिस मुठभेड़ में मारे गए थे. जिस जगह पर वह मारे गए थे, उस जगह का नाम लाल सलाम रख दिया गया. टनकुप्पा करयादपुर सड़क पर स्थित इस गांव के मोड़ पर कई बोर्ड लाल सलाम के लगे हैं. उस जगह पर निजी दुकानों से लेकर सरकारी बैंक के पता में लाल सलाम लिखा हुआ है.
नक्सलियों ने रखा था नामः इस गांव का पुराना नाम रैनपुरी है. रामा शंकर लाल को जानने वाले बैद्यनाथ भारती के अनुसार जिस दिन नक्सलियों ने रामा शंकर लाल का स्मारक बनवाया था उस दिन सैंकड़ों लोग मौजूद थे. स्मारिका बनने के खुशी में नक्सलियों ने गांव के लोगों के बीच मिठाई बांटी थी. उन्होंने बताया कि इस मौके पर बड़ी संख्या में नक्सली मौजदू थे, इसलिए उनके रखे नाम को बदलने की हिम्मत कोई नहीं कर सका.
"नाम तो अनोखा लगता है. नक्सली से जुड़ा हुआ है. लोगों की इच्छा होती है इस संबंध में जानने के लिए. इस जगह से यात्रा करने वाले लोग जब लाल सलाम का सरकारी बोर्ड देखते हैं तो नाम के पीछे का कारण भी जानना चाहते हैं."- अरुण भारती, स्थानीय
रामा शंकर कैसे बने नक्सलीः बैद्यनाथ भारती ने बताया कि 1970 के दशक में रामा शंकर लाल वामपंथ दल के सक्रिय कार्यकर्ता थे. बेटी की शादी में एक सामंतवादी से पांच किलो चीनी उधार ली थी. जिसकी कीमत उस वक्त 12.50 पैसे थी. इसके बदले 1200 रुपये वसूले गये. ब्याज दर जोड़ कर बाद में पांच किलो चीनी की कीमत 12 हजार कर दी गई. इसको लेकर पंचायत हुई, लेकिन हल नहीं निकला. इसके लिए उन्हें प्रताड़ना सहनी पड़ी. चीनी के लिए मिली प्रताड़ना के बाद वह नक्सली संगठन में चले गए. जमींदारों से लड़ाई लड़ी. गरीब लोगों की मदद के कारण वह इलाके के लिए मसीहा बन गए.
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