शिमला: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने बुधवार को प्रदेश के 6 मुख्य संसदीय सचिवों को पद से हटाने के आदेश दे दिए हैं. बीजेपी विधायक सतपाल सिंह सत्ती समेत तीन याचिकाओं की सुनवाई के बाद बुधवार को जस्टिस विवेक सिंह ठाकुर और जस्टिस बिपिन चंद्र नेगी की बेंच ने हिमाचल सरकार के 6 सीपीएस की नियुक्ति को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया है. डबल बेंच ने कुल 33 पन्नों के आदेश में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं.
बेशक एक सीपीएस का मूल वेतन एक विधायक से 10 हजार रुपये अधिक है लेकिन उन्हें ऑफिस, गाड़ी, आवास, स्टाफ सहित अन्य सुविधाएं मिलती हैं. हाइकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि विधानसभा ऐसे किसी एक्ट को बनाने और लागू करने में सक्षम नहीं है. हाइकोर्ट ने अपने फैसले में असम के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश सहित अन्य मामलों का जिक्र किया है. असम के फैसले को आधार बनाते हुए हाइकोर्ट ने हिमाचल प्रदेश संसदीय सचिव (नियुक्ति, वेतन, भत्ते, शक्तियां, विशेषाधिकार और सुविधाएं) अधिनियम, 2006 को भी खारिज कर दिया.
हाईकोर्ट ने कहा कि "हिमाचल प्रदेश संसदीय सचिव (नियुक्ति, वेतन, भत्ते, शक्तियां, विशेषाधिकार और सुविधाएं) अधिनियम, 2006 को राज्य विधानसभा की विधायी शक्ति से परे होने के कारण रद्द किया जाता है." इसके परिणामस्वरूप अदालत ने इस अधिनियम के बाद की गई नियुक्तियों को रद्द करते हुए इन्हें अवैध, असंवैधानिक और शून्य घोषित किया.
हाइकोर्ट ने आगे कहा कि "चूंकि विवादित अधिनियम शुरुआत से ही अमान्य है, इसलिए सभी संसदीय सचिवों ने नियुक्ति के समय से ही सार्वजनिक पद पर अतिक्रमण किया है, इसलिए अवैध और असंवैधानिक नियुक्ति के आधार पर उनका पद पर बने रहना कानूनन पूरी तरह से अनुचित है. इसलिये अब वे सभी मुख्य संसदीय सचिवों के पद पर नहीं रहेंगे"
कोर्ट ने इस फैसले कि प्रति तत्काल राज्य सरकार के मुख्य सचिव और सभी संबंधितों को भेजने को कहा है ताकि इसे तुरंत प्रभाव से लागू किया जा सके. कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव तथा अन्य सभी संबंधित पक्ष को इस निर्णय का अक्षरशः क्रियान्वयन सुनिश्चित करने को कहा है.
कोर्ट ने फैसले में कहा कि "विधानसभा अप्रत्यक्ष विधि अपनाकर अनिवार्य संवैधानिक निर्देशों का उल्लंघन नहीं कर सकता. यदि संवैधानिक प्राधिकरण को कोई कार्य करने से रोकने वाला कोई संवैधानिक प्रावधान है, तो उसे किसी भी छल-कपट के माध्यम से विफल नहीं होने दिया जा सकता. यह साफ तौर से संवैधानिक प्रावधान के साथ धोखाधड़ी होगी. मुख्य संसदीय सचिव" या "संसदीय सचिव" के रूप में वे कैबिनेट मंत्री के कार्यालय के सहायक/आकस्मिक कार्य करते हैं. उनकी भूमिका अधिकतम अनुशंसात्मक होती है, फिर भी वे राजनीतिक कार्यपालिका के संवैधानिक या वैधानिक, संप्रभु कार्यों के निष्पादन से सक्रिय रूप से जुड़े होते हैं."
अदालत में बहस के दौरान बताया गया कि हिमाचल प्रदेश में विधान सभा सदस्य 55,000/- रुपये प्रति माह वेतन मिलता है, जबकि मुख्य संसदीय सचिव और संसदीय सचिव क्रमशः 65,000/- रुपये और 60,000/- रुपये प्रति माह वेतन मिलता है. राज्य मंत्री, कैबिनेट मंत्री और मुख्यमंत्री को क्रमशः 78,000/- रुपये, 80,000/- रुपये और 95,000/- रुपये मूल वेतन के रूप में मिलते हैं. संसदीय सचिव के साथ-साथ मंत्री भी आलीशान आवास के लिए हकदार हैं, जिसका रख-रखाव शुल्क राज्य सरकार द्वारा वहन किया जाता है. ऐसे आवास के बदले में मुख्य संसदीय सचिव और संसदीय सचिव को क्रमशः 2500/- और 3000/- रुपये प्रति माह की दर से चुकाने होते हैं जबकि उप मंत्री, राज्य मंत्री, कैबिनेट मंत्री क्रमशः 2500/-, 3000/- और 3500/- रुपये प्रति माह की दर से आवास भत्ता मिलता है.
वहीं हर मंत्री और संसदीय सचिव एक कार के उपयोग के हकदार हैं जिसके रख-रखाव पर होने वाला खर्च भी राज्य सरकार द्वारा वहन किया जाता है या इसके बदले में संसदीय सचिव 300/- रुपये प्रति माह की दर से वाहन भत्ते के हकदार हैं जबकि उप मंत्री और मंत्री क्रमशः 300 रुपये और 500 रुपये प्रति माह की दर से वाहन भत्ते के हकदार हैं. हिमाचल प्रदेश में संसदीय सचिव को मंत्री का दर्जा और पद प्रदान करने के लिए विवादित अधिनियम में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, फिर भी विवादित अधिनियम के ‘उद्देश्य’ और इसके प्रावधानों के कारण ऐसे पद को प्रदान की गई छिपी हुई स्थिति का पता चलता है.
विधानसभा सदस्य के उलट संसदीय सचिव की सरकार में निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए आधिकारिक फाइलों तक उनकी पहुंच होती है. मुख्यमंत्री ने मुख्य संसदीय सचिवों को विभाग भी आवंटित किए हैं और उन्हें एक तरह से जूनियर मंत्रियों के तौर पर कैबिनेट मंत्रियों के साथ संबद्ध किया गया है. कोर्ट ने कहा कि स्पष्ट रूप से मुख्य संसदीय सचिव/संसदीय सचिव और मंत्री के बीच चित्रित किया जाने वाला अंतर कृत्रिम है. हिमाचल प्रदेश राज्य में हिमाचल प्रदेश विधान सभा के सदस्य के लिए विवादित अधिनियम द्वारा बनाया गया पद भी राज्य विधानसभा की विधायी क्षमता से परे है.