रांची: आदिवासियों की असली हितैषी होने का दावा करने वाली भाजपा को आदिवासी बहुल सीटों पर करारी शिकस्त मिली है. झारखंड में एक्जिट पोल के नतीजे फेल साबित हुए हैं. अभी तक के रुझान के मुताबिक अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व उन तीनों सीटों (खूंटी, दुमका और लोहरदगा) पर भाजपा कोई करिश्मा नहीं दिखा पाई. वैसे भाजपा ने एसटी के लिए रिजर्व पांच सीटों में से चार सीटों पर एक्सपेरिमेंट भी किया, जो फेल हो गया.
केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा को मिली शिकस्त
मोदी कैबिनेट में कद्दावर नेता बनकर उभरे अर्जुन मुंडा का निशाना भी इस चुनाव में चूक गया. केंद्र में जनजातीय मामलों के मंत्री पद पर रहते हुए अर्जुन मुंडा खूंटी सीट हार गये. उन्हें कांग्रेस के कालीचरण मुंडा ने शिकस्त दी. दरअसल, 2019 के चुनाव में भी अर्जुन मुंडा को कालीचरण से कड़ी टक्कर मिली थी लेकिन अंत में महज 14 सौ से कुछ ज्यादा वोट के अंतर से उन्हें जीत मिली थी. इसबार बाजी पलट गई. अब सवाल है कि अर्जुन मुंडा को इतनी बड़ी शिकस्त कैसे मिली. इसकी कई वजहें मानी जा रही हैं. एक तो मुस्लिम और ईसाई वोट का ध्रुवीकरण हुआ. दूसरा यह कि पथलगड़ी की वजह से पिछले चुनाव मं वोट बहिष्कार करने वालों ने इसबार खुलकर वोटिंग में भाग लिया. तीसरा कारण बना आदिवासी वोट बैंक में बिखराव.
सोरेन परिवार की बहू सीता नहीं बचा पाईं दुमका सीट
यही हाल दुमका में देखने को मिला. भाजपा ने दुमका में अपने सीटिंग सांसद सुनील सोरेन का टिकट काटकर सोरेन परिवार की बड़ी बहू सीता सोरेन को मैदान में उतारा था. सीता से भाजपा को काफी उम्मीदें थी. भाजपा मानकर चल रही थी कि सीता के आने से आदिवासी वोट बैंक पर असर पड़ेगा. क्योंकि शिबू सोरेन के साथ सीता सोरेन के दिवंगत पति दुर्गा सोरेन ने झामुमो को खड़ा करने में अहम भूमिका निभायी थी.
यही वजह है कि सीता सोरेन लगातार जामा विधानसभा सीट से जीत रही थीं. लेकिन मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलने और कल्पना सोरेन के एक्टिव होने से वह नाराज थी. आखिर में उन्होंने पारिवारिक विरासत वाली पार्टी को छोड़कर भाजपा के साथ आगे बढ़ने का फैसला लिया. उन्होंने चुनावी सभाओं पर अपने साथ हुए सौतेला व्यवहार का जिक्र भी किया. लेकिन झामुमो के शिकारीपाड़ा से सात बार के विधायक नलिन सोरेन से भी मुकाबला नहीं कर पाई. उनका जादू नहीं चला. बेशक, कुछ राउंड में सीता सोरेन को बढ़त मिली लेकिन राउंड दर राउंड उनकी बढ़त का फासला कम होता चला गया.
लोहरदगा में भी भाजपा को लगा झटका
भाजपा को तीसरा बड़ा झटका लोहरदगा सीट पर लगा है. पार्टी ने सीटिंग सांसद सुदर्शन भगत का टिकट काटकर समीर उरांव को प्रत्याशी बनाया था. इस चुनाव से पहले वह राज्यसभा सांसद भी थे. यही नहीं वह वर्तमान में भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं. इसके बावजूद उन्हें इंडिया गठबंधन के कांग्रेस प्रत्याशी सुखदेव भगत से मात खानी पड़ी जबकि इस सीट को लेकर झामुमो और कांग्रेस में काफी तनातनी हुई थी. बिशुनपुर से झामुमो विधायक चमरा लिंडा के चुनाव में उतरने से झामुमो असहज महसूस कर रही थी. चमरा के नहीं मानने पर पार्टी ने उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई भी की थी. लेकिन ऐसी चर्चा हो रही थी कि चमरा के मैदान में होने से भाजपा को फायदा होगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
राजमहल और सिंहभूम में जीत की उम्मीद पर फिका पानी
इस बार के चुनाव में भाजपा के सभी नेताओं का दावा था कि वह ना सिर्फ अपने तीनों सीटिंग रिजर्व सीटों पर जीत हासिल करेगी बल्कि राजमहल और सिंहभूम में भी कमल खिलेगा. सिंहभूम में कांग्रेस की एकमात्र सांसद रहीं गीता कोड़ा को भाजपा ने प्रत्याशी बनाया था. हो आदिवासी समाज से आने वाली गीता कोड़ा भी पूरे कांफिडेंस में थी. उनके लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चाईबासा में चुनावी सभा की थी. लेकिन कोल्हान की ज्यादातर विधानसभा सीटों पर झामुमो की जीत होने का फायदा झामुमो प्रत्याशी जोबा मांझी को मिला.
भाजपा का यही हाल राजमहल सीट पर भी हुआ. पार्टी ने पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी पर दाव लगाया था. इस सीट पर बोरियो से झामुमो विधायक लोबिन हेम्ब्रम के ताल ठोकने की वजह से चुनाव के त्रिकोणीय बनने के आसार थे. लेकिन मुस्लिम और यादव वोट की गोलबंदी के साथ-साथ आदिवासी वोट में बिखराव ने ताला मरांडी के भाग्य पर ताला जड़ दिया.
झारखंड के राजनीतिक गलियारें में चर्चा चल रही है कि एसटी के लिए रिजर्व सभी तीन वीनिंग सीटों के अलावा शेष दो सीटों पर हार का ठिकरा प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी पर फूट सकता है. क्योंकि पार्टी के शीर्ष नेताओं ने इनपर पूरा भरोसा जताया था. बाबूलाल मरांडी को खुली छूट मिली थी. टिकट बंटवारे में भी उनकी अहम भूमिका था. बाबूलाल मरांडी ऐसे नेता रहे हैं जो दुमका सीट पर शिबू सोरेन और उनकी पत्नी रुपी सोरेन को हरा चुके हैं. लेकिन प्रदेश अध्यक्ष के नाते वह कोई करीश्मा नहीं दिखा पाए