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इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला, बेटी के भरण पोषण हिंदू व्यक्ति का वैधानिक दायित्व - Allahabad High Court Verdict

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को अहम फैसला सुनाया. अदालत ने कहा कि हिंदू कानून में हमेशा अविवाहित बेटी के भरण-पोषण के लिए पिता के दायित्व को मान्यता दी गई है.

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इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश (Photo Credit- Etv Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Aug 14, 2024, 10:28 PM IST

प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा है कि हिंदू व्यक्ति पर अपनी बेटी का भरण-पोषण करने का वैधानिक दायित्व है. हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 20 के तहत बेटी अविवाहित हो और अपनी कमाई या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो.

यह आदेश न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम ने फैमिली कोर्ट हाथरस के फैसले को चुनौती देने वाली अवधेश सिंह की निगरानी याचिका को खारिज करते हुए दिया. मामले के तथ्यों के अनुसार प्रधान पारिवारिक न्यायाधीश हाथरस ने पत्नी को 25,000 रुपये प्रतिमाह और बेटी (गौरी नंदिनी) को 20,000 रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण देने का निर्देश दिया था. पत्नी और बेटी ने भी भरण-पोषण राशि बढ़ाने की मांग करते हुए याचिका की. दोनों याचिकाओं पर एकसाथ सुनवाई कर एकसाथ निर्णय लिया गया.

1992 में अवधेश सिंह ने विवाह किया था. पत्नी ने कहा कि उसके पति और पति के परिवार वालों ने उससे और उसकी बेटी दुर्व्यवहार किया. फरवरी 2009 में उसे उसकी बेटी के साथ ससुराल से बाहर निकाल दिया. पत्नी के पास खुद का और बेटी का भरण-पोषण करने का कोई साधन नहीं था इसलिए उसने ससुराल से निकाले जाने की तिथि से भरण-पोषण की मांग करते हुए न्यायालय में याचिका की.


पति का मामला यह था कि गौरी नंदिनी (पुत्री) का जन्म 25 जून 2005 को हुआ था. वह 26 सितम्बर 2023 के आदेश से पूर्व 25 जून 2023 को वयस्क हो गई थी, इसलिए पारिवारिक न्यायालय ने बेटी को भरण-पोषण देने में कानूनी त्रुटि की है, जो आदेश की तिथि पर वयस्क थी और धारा 125 सीआरपीसी के प्रावधानों के मद्देनजर भरण-पोषण की हकदार नहीं थी. तर्क दिया गया कि सर्वोच्च न्यायालय ने अभिलाषा के मामले में माना था कि अविवाहित बेटी जो वयस्क हो गई है और किसी मानसिक या शारीरिक असामान्यता से ग्रस्त नहीं है, वह सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं है.

उधर, पत्नी और बेटी की ओर से तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने दोनों को भरण-पोषण का अधिकार देने का सही आदेश दिया है, क्योंकि हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 20 के अनुसार बेटी विवाह होने तक भरण-पोषण पाने की हकदार है. सुनवाई के बाद कोर्ट ने टिप्पणी की कि कानून से पहले शास्त्रीय हिंदू कानून के तहत एक हिंदू पुरुष को हमेशा अपने वृद्ध माता-पिता, एक गुणी पत्नी और एक शिशु बच्चे का भरण-पोषण करने के लिए नैतिक और कानूनी रूप से उत्तरदायी माना जाता था.

साथ ही हिंदू कानून ने हमेशा अविवाहित बेटी के भरण-पोषण के लिए पिता के दायित्व को मान्यता दी है. अधिनियम 1956 की धारा 20 (3) भी बच्चों और वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण के संबंध में हिंदू कानून के सिद्धांतों को मान्यता देती है. यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि 1956 के अधिनियम की धारा 20(3) के तहत किसी हिंदू का वैधानिक दायित्व है कि वह अपनी बेटी का भरण-पोषण करे, जो अविवाहित है और अपनी कमाई या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण नहीं कर सकती.

इसी के साथ कोर्ट ने प्रधान पारिवारिक न्यायालय के आदेश को बरकरार रखते हुए कहा कि पारिवारिक न्यायालय द्वारा निर्धारित भरण-पोषण की राशि उचित थी इसलिए इस आदेश में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुनरीक्षण याचिका खारिज होने से पुनरीक्षणकर्ताओं को सीआरपीसी की धारा 127 के प्रावधानों के तहत आदेश में उपयुक्त संशोधन का दावा करने या फैमिली कोर्ट के समक्ष उचित आवेदन प्रस्तुत कर भरण-पोषण की राशि बढ़ाने से नहीं रोका जा सकेगा.

ये भी पढ़ें- 140 किलो चांदी, 700 ग्राम सोने से बने डेढ़ करोड़ के झूले पर विराजे रामलला, झूलनोत्सव में देश विदेश से जुटे साधु संत - Jhulan Utsav in Ayodhya

प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा है कि हिंदू व्यक्ति पर अपनी बेटी का भरण-पोषण करने का वैधानिक दायित्व है. हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 20 के तहत बेटी अविवाहित हो और अपनी कमाई या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो.

यह आदेश न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम ने फैमिली कोर्ट हाथरस के फैसले को चुनौती देने वाली अवधेश सिंह की निगरानी याचिका को खारिज करते हुए दिया. मामले के तथ्यों के अनुसार प्रधान पारिवारिक न्यायाधीश हाथरस ने पत्नी को 25,000 रुपये प्रतिमाह और बेटी (गौरी नंदिनी) को 20,000 रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण देने का निर्देश दिया था. पत्नी और बेटी ने भी भरण-पोषण राशि बढ़ाने की मांग करते हुए याचिका की. दोनों याचिकाओं पर एकसाथ सुनवाई कर एकसाथ निर्णय लिया गया.

1992 में अवधेश सिंह ने विवाह किया था. पत्नी ने कहा कि उसके पति और पति के परिवार वालों ने उससे और उसकी बेटी दुर्व्यवहार किया. फरवरी 2009 में उसे उसकी बेटी के साथ ससुराल से बाहर निकाल दिया. पत्नी के पास खुद का और बेटी का भरण-पोषण करने का कोई साधन नहीं था इसलिए उसने ससुराल से निकाले जाने की तिथि से भरण-पोषण की मांग करते हुए न्यायालय में याचिका की.


पति का मामला यह था कि गौरी नंदिनी (पुत्री) का जन्म 25 जून 2005 को हुआ था. वह 26 सितम्बर 2023 के आदेश से पूर्व 25 जून 2023 को वयस्क हो गई थी, इसलिए पारिवारिक न्यायालय ने बेटी को भरण-पोषण देने में कानूनी त्रुटि की है, जो आदेश की तिथि पर वयस्क थी और धारा 125 सीआरपीसी के प्रावधानों के मद्देनजर भरण-पोषण की हकदार नहीं थी. तर्क दिया गया कि सर्वोच्च न्यायालय ने अभिलाषा के मामले में माना था कि अविवाहित बेटी जो वयस्क हो गई है और किसी मानसिक या शारीरिक असामान्यता से ग्रस्त नहीं है, वह सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं है.

उधर, पत्नी और बेटी की ओर से तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने दोनों को भरण-पोषण का अधिकार देने का सही आदेश दिया है, क्योंकि हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 20 के अनुसार बेटी विवाह होने तक भरण-पोषण पाने की हकदार है. सुनवाई के बाद कोर्ट ने टिप्पणी की कि कानून से पहले शास्त्रीय हिंदू कानून के तहत एक हिंदू पुरुष को हमेशा अपने वृद्ध माता-पिता, एक गुणी पत्नी और एक शिशु बच्चे का भरण-पोषण करने के लिए नैतिक और कानूनी रूप से उत्तरदायी माना जाता था.

साथ ही हिंदू कानून ने हमेशा अविवाहित बेटी के भरण-पोषण के लिए पिता के दायित्व को मान्यता दी है. अधिनियम 1956 की धारा 20 (3) भी बच्चों और वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण के संबंध में हिंदू कानून के सिद्धांतों को मान्यता देती है. यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि 1956 के अधिनियम की धारा 20(3) के तहत किसी हिंदू का वैधानिक दायित्व है कि वह अपनी बेटी का भरण-पोषण करे, जो अविवाहित है और अपनी कमाई या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण नहीं कर सकती.

इसी के साथ कोर्ट ने प्रधान पारिवारिक न्यायालय के आदेश को बरकरार रखते हुए कहा कि पारिवारिक न्यायालय द्वारा निर्धारित भरण-पोषण की राशि उचित थी इसलिए इस आदेश में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुनरीक्षण याचिका खारिज होने से पुनरीक्षणकर्ताओं को सीआरपीसी की धारा 127 के प्रावधानों के तहत आदेश में उपयुक्त संशोधन का दावा करने या फैमिली कोर्ट के समक्ष उचित आवेदन प्रस्तुत कर भरण-पोषण की राशि बढ़ाने से नहीं रोका जा सकेगा.

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