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विदाई में सीता मैया को इसी घास से बने सामानों का मिला था उपहार, आत्मनिर्भर बन रही महिलाओं ने बतायी महत्ता - bihar SIKKI ART

BIHAR SIKKI ART: आज हम आपको बिहार की सिक्की कला के बारे में बताने जा रहे हैं. आदिवासी महिलाएं इससे अपनी तकदीर बदल रही हैं. यह विशेष प्रकार का घास बिहार में पाया जाता है और इससे बने प्रोडक्ट की डिमांड विदेशों तक में है. मान्यताओं के अनुसार राजा दशरथ ने अपनी पुत्री सीता की विदाई में इससे निर्मित सिंहोरा और अन्य सामग्री दी थी. आखिर क्या है इसकी अहमियत जानें.

सिक्की कला से ग्रामीण महिलाएं बन रहीं आत्मनिर्भर
सिक्की कला से ग्रामीण महिलाएं बन रहीं आत्मनिर्भर (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Bihar Team

Published : Jun 24, 2024, 6:54 PM IST

Updated : Jun 24, 2024, 7:10 PM IST

सिक्की कला से ग्रामीण महिलाएं बन रहीं आत्मनिर्भर (ETV Bharat)

बगहा: बिहार की प्राचीन कलाओं में से एक सिक्की कला लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है, लेकिन बिहार के बगहा की आदिवासी महिलाओं के प्रयास से यह कला अब अपनी पुरानी रौनक में लौट रही है. सिक्की कला के जरिए आदिवासी इलाके की महिलाएं ना सिर्फ अपने सांस्कृतिक विरासत को बचा रही हैं बल्कि इस हुनर का उपयोग कर आर्थिक रूप से एक हद तक आत्मनिर्भर भी बन रही हैं.

सिक्की कला से जुड़ी हैं सैंकड़ों महिलाएं
सिक्की कला से जुड़ी हैं सैंकड़ों महिलाएं (ETV Bharat)

सिक्की कला से ग्रामीण महिलाएं बन रहीं आत्मनिर्भर: लुप्त होती सिक्की कला के जरिए आदिवासी महिलाएं अपना तकदीर लिख रहीं हैं. इनके बनाए उत्पादों की डिमांड विदेशों तक है क्योंकि वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के भ्रमण पर आने वाले पर्यटकों को सिक्की कला के उत्पाद खूब भाते हैं. सैकड़ों महिलाएं सिक्की कला से मौनी, पौती, झप्पा, गुलमा, सजी, बास्केट, आभूषण, खिलौना, पंखा, चटाई सहित घर में सजावट वाली कई प्रकार की वस्तुओं का निर्माण कर अच्छे कीमतों पर बेच रहीं हैं.

विशेष प्रकार की घास यानी मूंज और कुश का उपयोग करती महिलाएं
विशेष प्रकार की घास यानी मूंज और कुश का उपयोग करती महिलाएं (ETV Bharat)

घास से बनने के कारण माना जाता है शुभ: दरअसल बिहार की बाढ़ वाली नदियों के किनारे उगने वाले एक विशेष प्रकार की घास यानी मूंज और कुश का उपयोग कर महिलाएं रंग बिरंगी मौनी, डलिया, पंखा, पौती, पेटारी, सिकौती, सिंहोरा इत्यादि चीजें बनाती हैं, जिसकी डिमांड विदेशों तक है. घास से बने सामान शुभ माने जाते हैं इसलिए इनका प्रयोग शुभ कामों में करने की परंपरा चली आ रही है. नीलम देवी बताती हैं कि नदी और खेत के बांध किनारे हमलोग मूंज और कुश उपजाते हैं. इससे बांध भी मजबूत रहता है और इसका उपयोग कर हम रंग बिरंगी उत्पाद बनाते हैं.

विदेशों में भी मांग
विदेशों में भी मांग (ETV Bharat)

"सितंबर और अक्टूबर माह में मूंज को काटकर सुखाया जाता है. फिर उसे पतला सीक के आकार में काटकर उसको अलग अलग रंगों में रंगा जाता है. जिससे महिलाएं दौरी, मोना, चटाई, पंखा और फूल डाली जैसे उत्पाद बनाती हैं. इस काम में 150 के करीब महिलाएं लगी हुई हैं."- नीलम देवी, सिक्की कला निर्माता

माता सीता को विदाई के समय दी गई थी सिक्की की बनी सिंहौरा: बता दें कि सिक्की कला का इतिहास काफी पुराना है. तकरीबन 400 वर्ष पहले से ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं इस कला में निपुण रही हैं. पुराणों में भी इस बात का जिक्र है की राजा जनक ने अपनी पुत्री वैदेही (माता सीता) को विदाई के समय सिक्की कला की सिंहौरा, डलिया और दौरी इत्यादि बनाकर दिया था. आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बेटी की विदाई के दौरान सिक्की से बने उत्पादों को देने की परंपरा चली आ रही है.

आत्मनिर्भर बन रही महिलाएं
आत्मनिर्भर बन रही महिलाएं (ETV Bharat)

300- 5000 रुपये तक में बिकते हैं सामान: सोनी देवी बताती हैं कि इस निर्माण कार्य से सैकड़ों महिलाएं जुड़ी हैं. सेमरा, संत पुर, सोहरिया, चंपापुर , हरनाटांड़ जैसे दर्जनों गांव में महिलाएं दो से तीन घंटा का समय निकालकर इसको बनाती हैं. सिक्की कला के उत्पाद 300 से लेकर 5000 तक बिकते हैं.
इन आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षण देकर उनको बाजार उपलब्ध कराने वाली रानी देवी बताती हैं कि तकरीबन 200 महिलाओं को उन्होंने सिक्की कला के आधुनिक डिजाइन के लिए प्रशिक्षित किया है.

घास से बने होने के कारण माना जाता है शुभ
घास से बने होने के कारण माना जाता है शुभ (ETV Bharat)

"मूंज है, खेत में बांध के पास होता है. हम इसको चिरते हैं फिर इसे घर लाते हैं. इसको सुखाते हैं फिर सुखाकर रखते हैं. सभी में रंग चढ़ाते हैं और फिर डिजाइन बनाते हैं."- सोनी देवी, सिक्की कला से जुड़ी महिला

"आदिवासी महिलाओं को सिक्की कला के कारण रोजगार मिला हुआ है. इनके बनाए कलाकृतियों को हम देश के विभिन्न राज्यों में लगने वाले फेयर में स्टॉल लगवाकर बेचती हैं. साथ ही कई एनजीओ की सहायता से ऑनलाइन मार्केटिंग भी की जा रही है. इसके अलावा वीटीआर में आने वाले पर्यटकों के लिए वाल्मीकिनगर अतिथि भवन में स्थापित सोवेनियर स्टॉल पर भी सामग्रियों को उपलब्ध करा कर बेचा जाता है. विदेशी पर्यटकों को हमारे उत्पाद काफी पसंद आते हैं."- रानी देवी, प्रशिक्षणकर्ता

मिथिला की सौंदर्यता बढ़ा रही ये कला: मिथिला का सौंदर्य कहे जाने वाले सिक्की कला को रोजगार बनाकर सैकड़ों आदिवासी महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं. खासकर जीविका समूह से जुड़ी दीदियों का आकर्षण सिक्की कला के प्रति बढ़ा है और अब वे इसे बड़े पैमाने पर विस्तार करना चाहती हैं. यदि सरकार द्वारा इन्हे एक अच्छा प्लेटफार्म दिया जाता है तो विलुप्त होती जा रही सिक्की कला के जरिए बड़े पैमाने पर लघु व कुटीर उद्योग को बढ़ावा दिया जा सकता है.

इसे भी पढ़ें- गजब..! इसे ही कहते हैं आत्मनिर्भर की ओर बढ़ता बिहार, 1000 परिवार बना रहा दुल्हनों की चूड़ियां-लहठी, कई राज्यों में डिमांड - Gaya Churi Wala Gaon

सिक्की कला से ग्रामीण महिलाएं बन रहीं आत्मनिर्भर (ETV Bharat)

बगहा: बिहार की प्राचीन कलाओं में से एक सिक्की कला लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है, लेकिन बिहार के बगहा की आदिवासी महिलाओं के प्रयास से यह कला अब अपनी पुरानी रौनक में लौट रही है. सिक्की कला के जरिए आदिवासी इलाके की महिलाएं ना सिर्फ अपने सांस्कृतिक विरासत को बचा रही हैं बल्कि इस हुनर का उपयोग कर आर्थिक रूप से एक हद तक आत्मनिर्भर भी बन रही हैं.

सिक्की कला से जुड़ी हैं सैंकड़ों महिलाएं
सिक्की कला से जुड़ी हैं सैंकड़ों महिलाएं (ETV Bharat)

सिक्की कला से ग्रामीण महिलाएं बन रहीं आत्मनिर्भर: लुप्त होती सिक्की कला के जरिए आदिवासी महिलाएं अपना तकदीर लिख रहीं हैं. इनके बनाए उत्पादों की डिमांड विदेशों तक है क्योंकि वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के भ्रमण पर आने वाले पर्यटकों को सिक्की कला के उत्पाद खूब भाते हैं. सैकड़ों महिलाएं सिक्की कला से मौनी, पौती, झप्पा, गुलमा, सजी, बास्केट, आभूषण, खिलौना, पंखा, चटाई सहित घर में सजावट वाली कई प्रकार की वस्तुओं का निर्माण कर अच्छे कीमतों पर बेच रहीं हैं.

विशेष प्रकार की घास यानी मूंज और कुश का उपयोग करती महिलाएं
विशेष प्रकार की घास यानी मूंज और कुश का उपयोग करती महिलाएं (ETV Bharat)

घास से बनने के कारण माना जाता है शुभ: दरअसल बिहार की बाढ़ वाली नदियों के किनारे उगने वाले एक विशेष प्रकार की घास यानी मूंज और कुश का उपयोग कर महिलाएं रंग बिरंगी मौनी, डलिया, पंखा, पौती, पेटारी, सिकौती, सिंहोरा इत्यादि चीजें बनाती हैं, जिसकी डिमांड विदेशों तक है. घास से बने सामान शुभ माने जाते हैं इसलिए इनका प्रयोग शुभ कामों में करने की परंपरा चली आ रही है. नीलम देवी बताती हैं कि नदी और खेत के बांध किनारे हमलोग मूंज और कुश उपजाते हैं. इससे बांध भी मजबूत रहता है और इसका उपयोग कर हम रंग बिरंगी उत्पाद बनाते हैं.

विदेशों में भी मांग
विदेशों में भी मांग (ETV Bharat)

"सितंबर और अक्टूबर माह में मूंज को काटकर सुखाया जाता है. फिर उसे पतला सीक के आकार में काटकर उसको अलग अलग रंगों में रंगा जाता है. जिससे महिलाएं दौरी, मोना, चटाई, पंखा और फूल डाली जैसे उत्पाद बनाती हैं. इस काम में 150 के करीब महिलाएं लगी हुई हैं."- नीलम देवी, सिक्की कला निर्माता

माता सीता को विदाई के समय दी गई थी सिक्की की बनी सिंहौरा: बता दें कि सिक्की कला का इतिहास काफी पुराना है. तकरीबन 400 वर्ष पहले से ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं इस कला में निपुण रही हैं. पुराणों में भी इस बात का जिक्र है की राजा जनक ने अपनी पुत्री वैदेही (माता सीता) को विदाई के समय सिक्की कला की सिंहौरा, डलिया और दौरी इत्यादि बनाकर दिया था. आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बेटी की विदाई के दौरान सिक्की से बने उत्पादों को देने की परंपरा चली आ रही है.

आत्मनिर्भर बन रही महिलाएं
आत्मनिर्भर बन रही महिलाएं (ETV Bharat)

300- 5000 रुपये तक में बिकते हैं सामान: सोनी देवी बताती हैं कि इस निर्माण कार्य से सैकड़ों महिलाएं जुड़ी हैं. सेमरा, संत पुर, सोहरिया, चंपापुर , हरनाटांड़ जैसे दर्जनों गांव में महिलाएं दो से तीन घंटा का समय निकालकर इसको बनाती हैं. सिक्की कला के उत्पाद 300 से लेकर 5000 तक बिकते हैं.
इन आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षण देकर उनको बाजार उपलब्ध कराने वाली रानी देवी बताती हैं कि तकरीबन 200 महिलाओं को उन्होंने सिक्की कला के आधुनिक डिजाइन के लिए प्रशिक्षित किया है.

घास से बने होने के कारण माना जाता है शुभ
घास से बने होने के कारण माना जाता है शुभ (ETV Bharat)

"मूंज है, खेत में बांध के पास होता है. हम इसको चिरते हैं फिर इसे घर लाते हैं. इसको सुखाते हैं फिर सुखाकर रखते हैं. सभी में रंग चढ़ाते हैं और फिर डिजाइन बनाते हैं."- सोनी देवी, सिक्की कला से जुड़ी महिला

"आदिवासी महिलाओं को सिक्की कला के कारण रोजगार मिला हुआ है. इनके बनाए कलाकृतियों को हम देश के विभिन्न राज्यों में लगने वाले फेयर में स्टॉल लगवाकर बेचती हैं. साथ ही कई एनजीओ की सहायता से ऑनलाइन मार्केटिंग भी की जा रही है. इसके अलावा वीटीआर में आने वाले पर्यटकों के लिए वाल्मीकिनगर अतिथि भवन में स्थापित सोवेनियर स्टॉल पर भी सामग्रियों को उपलब्ध करा कर बेचा जाता है. विदेशी पर्यटकों को हमारे उत्पाद काफी पसंद आते हैं."- रानी देवी, प्रशिक्षणकर्ता

मिथिला की सौंदर्यता बढ़ा रही ये कला: मिथिला का सौंदर्य कहे जाने वाले सिक्की कला को रोजगार बनाकर सैकड़ों आदिवासी महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं. खासकर जीविका समूह से जुड़ी दीदियों का आकर्षण सिक्की कला के प्रति बढ़ा है और अब वे इसे बड़े पैमाने पर विस्तार करना चाहती हैं. यदि सरकार द्वारा इन्हे एक अच्छा प्लेटफार्म दिया जाता है तो विलुप्त होती जा रही सिक्की कला के जरिए बड़े पैमाने पर लघु व कुटीर उद्योग को बढ़ावा दिया जा सकता है.

इसे भी पढ़ें- गजब..! इसे ही कहते हैं आत्मनिर्भर की ओर बढ़ता बिहार, 1000 परिवार बना रहा दुल्हनों की चूड़ियां-लहठी, कई राज्यों में डिमांड - Gaya Churi Wala Gaon

Last Updated : Jun 24, 2024, 7:10 PM IST
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