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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : Mar 27, 2024, 1:27 PM IST

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छलका रियासतकालीन तमाशा कलाकारों का दर्द, बोले- जनाश्रय मिला, राजाश्रय नहीं - World Theater Day

WORLD THEATER DAY, जयपुर के तमाशा जिसने राजतंत्र के दौरान बहुत नाम कमाया, लेकिन सरकारी संरक्षण नहीं मिलने से आज ये लुप्त होने की कगार पर है. वर्तमान में कुछ ही परिवार बचे हैं, जो इसे जीवंत रखे हुए हैं.

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रियासत कालीन तमाशा कलाकार

जयपुर. कहते हैं कलाकार मर जाते हैं, लेकिन उनकी कला युगों-युगों तक जीवंत रहती है. जयपुर का तमाशा भी एक ऐसी ही कला है, जिसने अपनी ख्याति के अनुसार नाम तो कमाया लेकिन जो सम्मान और संरक्षण इस कला को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया. आलम यह है कि राजतंत्र में हर सप्ताह शहर के 52 अलग-अलग कोनों में होने वाला तमाशा आज केवल दो दिन, दो स्थानों पर ही सिमट कर रह गया है. वर्ल्ड थिएटर डे पर रियासत कालीन इस तमाशा से जुड़े कलाकारों का दर्द भी छलका और उन्होंने सैकड़ों साल पुरानी इस कला को लुप्त होने से बचाने के लिए सरकार से संरक्षण की मांग भी की.

52 स्थानों पर होता था तमाशा : आज बॉलीवुड और दूसरी फिल्म इंडस्ट्री मनोरंजन के क्षेत्र में अपने मुकाम पर है. इस बीच रंगमंच के प्रति लोगों का रुझान वाकई कम हो गया. अब थिएटर को लोग भी फिल्म इंडस्ट्री में काम करने के रास्ते खोजते हैं. हालांकि जयपुर में कुछ कलाकार ऐसे भी हैं, जो थिएटर से तो जुड़े ही है, इसके अलावा जयपुर के 52 स्थानों पर होने वाले विरासत के अंश तमाशे को भी संजोए हुए हैं.

तमाशा कलाकार विशाल भट्ट ने सभी को विश्व रंगमंच दिवस की बधाई देते हुए बताया कि आधुनिक रंग मंच लोकधाराओं से निकला हुआ है. भारतीय जनमानस में इसकी शुरुआत भरत मुनि के नाट्य शास्त्र से मानी जाती है, लेकिन लोकधाराएं उससे भी पहले की हैं, जिन पर ही आधारित ये नाट्य शास्त्र बना था. ऐसे में रंगमंच में लोकनाट्य प्रमुख है. वो और उनका परिवार इसी लोकनाट्य से जुड़े हुए हैं.

अब 2 ही जगह तमाशे का आयोजन : उन्होंने बताया कि जयपुर तमाशा जिसे जयपुरी ख्याल कहा जाता है. ये राजस्थान की अन्य कुचामनी ख्याल व शेखावाटी ख्याल की तरह ही है. इसी विरासत को संजोते हुए इसे आधुनिक दौर के साथ भी जोड़ते हैं. विशाल भट्ट ने बताया कि इससे पहले राजाओं का संरक्षण था. राजाओं ने 52 अखाड़े दिए हुए थे. परकोटा क्षेत्र में हर सप्ताह तमाशा का आयोजन हुआ करता था. इसमें मालियों का चौक, पीतलियों का चौक, ताड़केश्वर महादेव मंदिर, बारह भाइयों का चौराहा, ब्रह्मपुरी छोटा अखाड़ा, बड़ा अखाड़ा जैसे स्थानों पर बंशीधर की ओर से लिखे गए तमाशों का आयोजन हुआ करता था, लेकिन अब केवल दो जगहों पर ही तमाशे का आयोजन होता है. एक ब्रह्मपुरी के छोटे अखाड़े में और दूसरा आमेर के अंबिकेश्वर नाथ मंदिर में.

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सरकार नहीं दे रही संरक्षण : चूंकि भारत में हर 7 दिन में कोई ना कोई त्योहार आता ही रहता है. इस दौरान मनोरंजन और हर्षोल्लास के लिए तमाशे का आयोजन होता था, जिसमें सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर कटाक्ष भी हुआ करते थे, लेकिन उस दौर में राज परिवार जितना तमाशा पर ध्यान दिया करता था, उतना अब सरकार नहीं देती. राज परिवार ने इसे सिर आंखों पर रखा हुआ था, लेकिन रजवाड़े खत्म होने के बाद अब इस तमाशा शैली को कुछ परिवारों को ही संभालना पड़ रहा है. ऐसे में यदि सरकार इसे संरक्षण दे, अपने वार्षिक कार्यक्रमों या पर्यटन के कार्यक्रम से जोड़ ले तो ये विरासत संरक्षित हो सकती है.

तमाशा कलाकार डॉ. सौरभ भट्ट ने बताया कि जब उन्होंने तमाशा की शुरुआत की थी, तब वो 6-7 वर्ष के थे. बचपन से ही तमाशा के शास्त्रीय संगीत की धुन उनके कानों में पड़ा करती थी. उनके परिवार ने तमाशे के पारंपरिक स्वरूप को आज तक जीवंत रखा हुआ है, जिसमें रांझा हीर, लैला मजनू, गोपीचंद ऐसे तमाशा है जिसे वो बचपन से ही देख रहे हैं और उसे परफॉर्म कर रहे हैं. इसमें व्यंग्य करने की परंपरा भी रही है. सामाजिक स्थितियों में कुछ अच्छी बातों की सराहना भी की जाती है, तो गलत बातों पर आलोचना भी की जाती है. इस बार भी तमाशा में वीआईपी मूवमेंट को लेकर प्रहार किया गया, जिसमें रांझा हीर को ढूंढने के लिए आया हुआ है, लेकिन वीआईपी मूवमेंट के कारण ट्रैफिक में फंस गया है. यानी एक पौराणिक रांझा की कहानी को आधुनिकता के साथ जोड़कर प्रदर्शित किया. इसी तरह सामाजिक समरसता का भी संदेश देते हैं, जिसमें रांझा होली भी खेलता है, गणगौर-तीज भी मनाता है, अजमेर की दरगाह में भी जाता है, सारे जाति-वर्ण भेद मिटाकर एक तमाशा की प्रस्तुति होती है.

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तमाशा के निदेशक वासुदेव भट्ट ने बताया कि वो बचपन से थिएटर करते आ रहे हैं. ब्रह्मपुरी में दो स्थानों पर लगातार 30 वर्ष तक उन्होंने नाटक किया. इंडियन लेवल का मॉडर्न थिएटर भी किया. उनके कुछ स्टूडेंट आज फिल्मों में काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी विरासत तमाशा है, उसको संरक्षण मिलना चाहिए, क्योंकि वहीं नाटक की सर्वोच्च विधा है, क्योंकि इसमें संगीत और चारों दिशाओं की ओर अभिनय है. यहां दर्शकों से आंख से आंख मिलाकर अभिनय होता है. जो तमाशा शैली में पारंगत होगा, वो नाटक में कहीं चूक नहीं सकता.

राजघराना देता था संरक्षण : उन्होंने बताया कि तमाशा का खुद का मंच है, खुद की ऑडियंस है, और खुद के कलाकार हैं. पहले तो राजघराने से इस तमाशा शैली को संरक्षण मिलता था. राजघराने खत्म होने के बाद इसे जनाश्रय मिला, जिसमें लोग आगे बढ़कर कलाकारों की खुराक, दूध आदि का पैसा तक दिया करते थे, लेकिन आज हकीकत ये है कि पर्यटन और सांस्कृतिक क्षेत्र के बड़े-बड़े अधिकारियों को ये तक नहीं पता कि तमाशा होता क्या है. उन्हें देखना चाहिए कि जयपुर की विरासत के साथ करीब ढाई सौ साल से ज्यादा समय से जो तमाशा चल रहा है, वो कला है क्या ? खुद कलाकारों को तमाशा देखने के लिए लोगों को आमंत्रित करने जाना पड़ता है. युवा कलाकार ग्रांट लेने के लिए अप्लाई जरूर करते हैं, कभी पैसा मिलता है कभी नहीं, लेकिन सोच यही है कि उन्हें अपने तमाशे को जीवंत रखना है और दर्शकों को बांधे रखने का प्रयत्न करते रहना हैं.

बहरहाल, सैकड़ों साल पुरानी इस कला को आज इक्का-दुक्का परिवारों ने लुप्त होने से बचाया हुआ है. राजतंत्र के दौरान जो कला मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन हुआ करती थी, आज इस आधुनिक दौर में उसकी पूछ कम हुई है. विरासत के इस अंग को यदि जीवंत रखना है, तो इसे संरक्षण जरूर मिलना चाहिए.

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