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काशी राजपरिवार संपत्ति विवाद में आया अहम फैसला, क्या अब भाई और तीन बहनों के बीच सुलझेगी लड़ाई?

KASHI KING PROPERTY DISPUTE: दिवंगत काशी नरेश डॉ. विभूति नारायण सिंह के बेटे और तीन बेटियों के बीच क्या है विवाद? लंबी कानूनी लड़ाई के बाद क्या अब विवाद खत्म होने की ओर है?

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क्या काशीराज परिवार में अब होगी सुलह. (Photo Credit: ETV Bharat)

By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Nov 12, 2024, 9:41 AM IST

Updated : Nov 14, 2024, 6:27 PM IST

वाराणसी: काशीराज परिवार में बहन भाइयों के बीच विवाद राजस्व परिषद के फैसले के बाद अब एक मजबूत आधार के साथ खत्म होता दिखाई दे रहा है. लंबी कानूनी लड़ाई के बाद काशी नरेश विभूति नारायण सिंह की तीन बेटियों विष्णु प्रिया, हरी प्रिया और कृष्ण प्रिया के पक्ष में राजस्व परिषद ने फैसला सुनाया है.

राजस्व परिषद ने काशी नरेश दिवंगत डॉ. विभूति नारायण सिंह की बेटियों की याचिका पर सुनवाई के बाद सभी कानूनी अड़चनों को हटाते हुए नामांतरण प्रक्रिया को दो माह में निस्तारित करने का आदेश दिया है.

काशी राज घराने के विवाद के बारे में बताते वकील. (Video Credit; ETV Bharat)

क्या है विवादः बता दें कि यह विवाद काफी पुराना है. काशी नरेश डॉ. विभूति नारायण सिंह के निधन के बाद यह विवाद शुरू हुआ था. डॉ. विभूति नारायण सिंह ने 16 जुलाई 1970 को अपनी संपत्ति को चार हिस्सों में विभाजित किया था.

उनके अधिवक्ता अरुण श्रीवास्तव के मुताबिक काशी नरेश ने रामनगर का फराशखाना, ग्रास फार्म महारानी के लिए बाग पटनावा और अपने बेटे अनंतनारायणन के लिए खजूरी कोठी समेत अन्य संपत्ति और अपनी तीन बेटियों के लिए रामनगर के परेड ग्राउंड, जालूपुरा कोठी, भदोही में बैंक बिल्डिंग और अन्य संपत्तियां रखी थी. काशी नरेश के जीवन काल में इस पारिवारिक समझौते का पालन हुआ, लेकिन उनके निधन के बाद यह विवाद पैदा हो गया कि किस संपत्ति पर किसका हक है.

काशी राजघराने का विवाद कैसे गहराता गया:बहन विष्णु प्रिया, हरी प्रिया और कृष्ण प्रिया समेत राजकुमार अनंत नारायण सिंह के बीच विवाद गहराता गया. बहन भाइयों के बीच संपत्ति का यह विवाद बढ़ता गया और काशी नरेश की तीनों बेटियों ने 1970 के बाद भाई द्वारा जमीन के कागजात ने अपना नाम चढ़ाने की जानकारी होने के बाद आपत्ति जताई. बाद में बहन भाई के बीच विवाद और बढ़ा, जिसके बाद तीनों बेटियों ने कानून की शरण ली.

काशी राज परिवार संपत्ति विवाद में आया फैसला. (photo credit: etv bharat)

संपत्ति से संबंधित खतौनी में अपना नाम चढ़ाने के लिए तहसील में वाद दाखिल किया गया, लेकिन इंसाफ नहीं मिला. नायब तहसीलदार और अपर जिला अधिकारी की अदालत ने तीनों बहनों के दावे को पोषणीय नहीं मानते हुए उस वक्त खारिज कर दिया था. हालांकि नायब तहसीलदार और उप जिलाधिकारी की अदालत से इंसाफ न मिलने के बाद 28 दिसंबर 2023 को अनंत नारायण सिंह की बहनों ने राजस्व परिषद में निगरानी याचिका दाखिल की थी.

इस याचिका पर कोर्ट ने सोमवार को आदेश देते हुए अपना फैसला दिया है. उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद के न्यायिक सदस्य साहिब सिंह ने इस मामले में सारे तथ्य समझने के बाद अपने फैसले में एसडीएम और तहसीलदार के पूर्व आदेशों को निरस्त करते हुए निर्देश दिया है कि सदर तहसील के नायब तहसीलदार नामांतरण वाद को दो महीने के भीतर निस्तारित करें. इसके बाद अब माना जा रहा है की बहन भाइयों के बीच चल रहा है यह विवाद खत्म हो जाएगा.

काशी नरेश ने निधन के पहले ही बांट दी थी संपत्ति:राजकुमारी के अधिवक्ता डॉ. विजय शंकर मिश्र का कहना है कि 2005 से बहन भाइयों के बीच प्रॉपर्टी का विवाद चल रहा है. इसकी वजह से परंपराएं भी टूटती नजर आ रही थीं. हालांकि बाद में इन चीजों को संभाल गया उनका कहना है कि जब 1969-70 में काशी राज परिवार में वसीयत तैयार हुई तो तत्कालीन काशी नरेश डॉ. विभूति नारायण सिंह ने संपत्ति पत्नी बेटे अनंत नारायण सिंह और तीनों बेटियों में बांट दी.

काशी नरेश की एक बहन रामनगर किले में रह रही:1970 से लेकर 2000 तक तो सारी चीज ठीक थी, लेकिन डॉ. विभूति नारायण सिंह के निधन के बाद बहन भाइयों के बीच 2005 से विवाद शुरू हो गया और प्रॉपर्टी का डिस्प्यूट एक के बाद एक सामने आने लगा. डॉ. विभूति नारायण सिंह के निधन के बाद जमीन विवाद के संदर्भ में मुकदमा किए जाने के बाद एक बहन रामनगर किले में ही रहती है, जबकि दो बहने बाहर हैं. पिता की संपत्ति पर सभी बहनें बराबर का हिस्सा जता रही हैं.

शादी के बाद बेटियों को दे दिया गया था हिस्सा, फिर क्यों विवाद:जबकि कुंवर अनंत नारायण सिंह का कहना है कि पिता ने विवाह के बाद इन्हें बराबर का हिस्सा देकर अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर ली थी, लेकिन विवाद कम होने का नाम ही नहीं ले रहा. 2018 में कुंवर अनंत नारायण सिंह ने राजशाही चिह्न का गलत तरीके से प्रयोग करने के मामले में बहन हरी प्रिया के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज करवाया था. 2019 में बहनों ने भाई के खिलाफ धोखे से जमीन बेचने का आरोप लगाकर एक मुकदमा दर्ज करने की तहरीर दी थी.

किले में चोरी का मुकदमा बहन और भांजो पर हुआ:हालांकि, मुकदमा दर्ज नहीं हुआ और 2021 में फिर से एक प्रॉपर्टी बेचने का मामला सामने आया. इस पर फिर से तहरीर दी गई, जिस पर जांच के बाद मुकदमा हुआ. एक के बाद एक नए मुकदमों के बीच 2023 में रामनगर किले से चोरी के मामले को लेकर कुंवर आनंद नारायण सिंह ने अपनी बहन कृष्ण प्रिया हरी प्रिया और उनके बेटों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई थी, जिसके बाद यह दूरी और भी बढ़ गई.

क्या है काशी के राजा का इतिहास:दरअसल काशी राज परिवार वाराणसी में बहुत ही सम्मान की नजर से देखा जाता है. महाराज विभूति नारायण सिंह को महादेव के समान मान कर काशीवासी हर हर महादेव के जय घोष से उनका स्वागत करते थे. बेटे कुंवर अनंत नारायण को भी आज इस सम्मान के साथ देखा जाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि काशी राज परिवार आज भी परंपराओं का निर्वहन कर रहा है. बनारस में ऐसी मान्यता है कि यहां सिर्फ तीन राजा हैं. पहले काशी विश्वनाथ, दूसरे काशी नरेश और तीसरे डोम राजा काशीराज घराने को बनारस एस्टेट के रूप में जाना जाता है. इसकी स्थापना मंसाराम के द्वारा की गई थी.

क्या है काशीराज घराने की वंशावली:17वीं शताब्दी में मंसाराम बनारस के एक मंडल के नाजिम रुस्तम अली खान के मातहत के रूप में कार्य कर रहे थे. उसके बाद 1736 में रुस्तम अली के उत्तराधिकारी के तौर पर इन्हें नियुक्त किया गया. मंसाराम के बाद उनके बेटे बलवंत सिंह साहब ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया और अपनी राजधानी गंगापुर में बनाकर वहां एक किले का निर्माण करवाया, लेकिन बाद में राजधानी को बनारस के गंगा उसा पार रामनगर में स्थानांतरित किया गया.

बलदेव सिंह ने 1750 में 1760 के बीच अवध के नवाब की तरफ से उनके किले पर हमले के दौरान अपने कौशल का परिचय देकर अवध के नवाब को हरा दिया और नवाब ने उनकी सत्ता को स्वीकार कर लिया. बाद में उनके बेटे चेत सिंह को काशी नरेश के पद पर बैठाया गया. यह परंपरा और आगे बढ़ी 1795 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने चेत सिंह के बाद मोहित नारायण सिंह और फिर शेर सिंह के भांजे उदित नारायण सिंह को काशी के महाराज के तौर पर स्थापित किया.

1857 के गदर में ईश्वरी नारायण सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत का साथ दिया, जिसकी वजह से उस वक्त अंग्रेजी हुकूमत ने महाराजा को बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया और 13 अक्टूबर को अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें सलामी भी दी थी. इससे खुश होकर ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह को वायसराय के लेजिसलेटिव काउंसिल का सदस्य भी बनाया गया था.

15 अक्टूबर 1948 को राज्य भारतीय संघ में मिल जाने के बाद विभूति नारायण सिंह को महाराज के नाम से ही बुलाए जाने की घोषणा हुई. इसके बाद उन्हें स्वतंत्र भारत में महाराज के तौर पर ही सम्मान दिया जाता था. 2000 में उनकी मृत्यु के बाद अब उनके बेटे कुंवर आनंद नारायण सिंह इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.

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Last Updated : Nov 14, 2024, 6:27 PM IST

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