सागर।समुद्र मंथन में निकले विष से दुनिया को बचाने के लिए भगवान भोलेनाथ ने विष के कलश को पूरा पी लिया था, लेकिन कहा जाता है कि उन्होंने विष को अपने गले के नीचे नहीं उतारा और इस वजह से उनका गला नीला पड़ गया. तब से उन्हें नीलकंठ महादेव के नाम से जाना जाता है, लेकिन गले में जहर के कारण उनके शरीर में गरमी इतनी ज्यादा बढ़ गयी कि उन्हें शीतलता प्रदान करने के लिए जलमग्न करने के साथ-साथ औषधि स्नान कराया गया. इसी प्रसंग को ध्यान रखते हुए वैशाख के महीने में जब गर्मी चरम पर होती है, तब भगवान शिव को जलमग्न करने की परम्परा सागर शहर के शिवालयों में सालों से चल रही है. इस परंपरा के तहत वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान शिव को जलमग्न किया जाता है और फिर उनका अभिषेक किया जाता है. इस अलौकिक दृश्य को देखने के लिए भक्तों की भीड़ लगती है.
समुद्र मंथन से जुड़ा है प्रसंग
भागवत पुराण के अनुसार जब समुद्र मंथन में विष निकला तो समस्या खड़ी हो गयी कि इसका क्या निराकरण किया जाए. नहीं तो आम जनमानस के लिए काफी घातक होगा. भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने के लिए विष का कलश लिया और देखते ही देखते पूरा पी गए. भगवान शिव ने विष को अपने गले के नीचे नहीं उतारा. इसलिए विष के प्रभाव में उनका शरीर और विशेषकर नीला पड़ गया. इसलिए उन्हें नीलकंठ महादेव का नाम दिया गया, लेकिन विष के प्रभाव से भगवान शिव व्याकुल होने लगे और उनके शरीर में तापमान अचानक बढ़ गया. तब अश्विनी कुमारों को उनके उपचार के लिए बुलाया गया, तो अश्विनी कुमारों ने धतूरे से उनका उपचार किया. धतूरा एक औषधीय गुण वाला पौधा है. शरीर के ताप को कम करने के साथ विष के प्रभाव को खत्म करता है. तब से भगवान शिव के लिए धतूरा अत्याधिक प्रिय है.
गर्मी से बचाने के लिए शिव को किया जाता है जलमग्न
भगवान शिव के गले में विष के प्रभाव के कारण उन्हें काफी गर्मी लगती है. इसलिए भगवान शिव के भक्त वैशाख मास में जब गर्मी चरम पर होती है, तो पूर्णिमा के दिन भगवान शिव को जलमग्न करते हैं, ताकि गर्मी से उन्हें छुटकारा मिले. इसके लिए अलग-अलग पवित्र नदियों का जल इकट्टा किया जाता है और भगवान शिव को जलमग्न कर उनकी विशेष पूजा अर्चना और अभिषेक किया जाता है. इसके साथ भगवान को भोग में बेलपत्र का शरबत और सत्तू का भोग लगाया जाता है. ताकि भगवान को भीषण गर्मी से निजात मिले.