रेनवाल (जयपुर) :देश भर में विजयदशमी को दशहरा मेला व रावण दहन होता है, लेकिन जयपुर जिले के रेनवाल कस्बे में विजयदशमी से चार दिन पहले ही दशानन का दहन हो जाएगा. यह परंपरा 155 वर्ष से चल रही है. यही नहीं, क्षेत्र के गांवों में अलग-अलग तिथियों को दशहरा मेला व रावण दहन होता है. नांदरी गांव में होली के बाद रावण दहन होता है. यानी रावण एक दिन नही मरता पूरे 6 माह मरता है. सबसे पहले रावण दहन की शुरुआत मंलवार 8 अक्टूबर को कस्बे के दशहरा मैदान में 50 फुट के रावण के पुतले के दहन के साथ होगी. इसी माह की अष्टमी को रेनवाल के झमावाली मैदान पर रावण दहन होगा. इस तरह कस्बे में दो दिन रावण दहन होता है.
क्षेत्र में अलग-अलग दिन दशानन दहन : बड़ा मंदिर महंत जुगल शरण जी महाराज बताते हैं कि रेनवाल कस्बे में आसोज माह के नवरात्रा के छठे दिन और अष्टमी को रावण दहन होता है. हरसोली में विजय दशमी को रावण दहन किया जाता है. करणसर गांव में आसोज माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को रावण दहन होता है. बाघावास में कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को, बासड़ी खुर्द में कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की सप्तमी को तो नांदरी गांव में सबसे आखिर में होली के भी बाद वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को नृसिंह लीला व रावण दहन होता है.
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यह परंपरा कई वर्षों से चली आ रही है, जिसके पिछे कई कारण हैं. पहले मनोरंजन के साधन सीमित होने के कारण भिन्न-भिन्न तिथियों को मेले के आयोजन की ऐसी व्यवस्था बना दी गई, जिससे लोग आसपास के सभी मेलों में भाग लेकर अपना मनोरंजन कर सकें. मनोरंजन के साथ व्यापारिक महत्व भी था. पहले गन्ने की खेती होती थी. किसान अलग-अलग तिथियों पर मेले होने पर वह अपनी उपज बेच सकते थे. दशहरे के बाद दिपावली पर गन्ने का बहुत महत्व था. इसके अलावा एक कारण ये भी था कि धर्म का प्रचार प्रसार भी ज्यादा से ज्यादा हो सके.
अनूठा है रेनवाल का दशहरा : दशहरा मेले में शामिल होने के लिए प्रवासी लोग मुंबई, कोलकाता, असम, नेपाल, चैन्नई आदि से परिवार सहित शामिल होते हैं. मेले को लेकर लोगों में खासा उत्साह रहता है. दशहरा मेला सेवा समिति अध्यक्ष महेन्द्र कुमार दाधीच बताते हैं कि मेले के दिन भगवान लक्ष्मण पालकी में बैठकर दशहरा मैदान पहुंचते हैं. उनके साथ मुखौटे लगाए पूरी वानर सेना नृत्य करते हुए चलती है. दशहरा मैदान में करीब एक घंटे तक श्रीराम, लक्ष्मण व रावण की सेना के बीच युद्ध चलता है.
रावण वध के साथ ही आतिशबाजी के साथ पुतले का दहन होता है. जीत की खुशी में पालकी में रघुनाथजी की रास्ते में जगह-जगह लोग आरती उतारते हैं. रात में जीत के जश्न पर अवतार लीलाओं का मंचन होता है. मुखौटे लगाए राम की सेना के पात्र नगाड़ों की थाप पर नृत्य करते हैं. मुखौटे नृत्य में दक्षिण भारतीय शैली का नजारा देखने को मिलता है. यह मेला साम्प्रदायिक एकता को भी दर्शाता है. मुस्लिम समुदाय के लोग भी इन आयोजन में बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं. यहां तक कि मेले में भगवान की पूजा कर आशीर्वाद लेते हैं.
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हालांकि, इतिहास के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंकापति अत्याचारी रावण को आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को समाप्त कर शांति कायम की थी. असत्य पर सत्य की जीत के प्रतीक के रूप में इस दिन को विजय दशमी के रूप में मनाते हुए रावण के पुतले का दहन किया जाता है. विजय दशमी के दिन पूरे देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी रावण के पुतले को फूंककर जीत का जश्न मनाया जाता है, लेकिन रेनवाल सहित आसपास के कई गांवों में व कस्बों में दीपावली के बाद यहां तक की होली के बाद भी दशहरा मनाकर रावण दहन किया जाता है.