हजारीबाग: 5000 वर्ष पुरानी सोहराई कला फैशन के दुनिया में हजारीबाग अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करने को लेकर आतुर दिख रहा है. गुफा से निकली हुई यह कला दूर तक अपनी पहचान तय कर चुकी है. अब यह कला मॉडलिंग के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बना रही है. गुफा से निकलकर परिधानों में सोहराई कला उतारी जा रही है.
झारखंड की एक मात्र जीआई टैग प्राप्त सोहराई कला अब फैशन की दुनिया में भी अपनी जगह बनाने को आतुर दिख रही है. साड़ियों के साथ कई अन्य कपड़ों पर सोहराई उकेरा जा रहा है. हैंडमेड पेंटिंग के अब अमेरिका और ब्रिटेन तक कद्रदान मिलने लगे हैं. पटना के निफ्ट, पुणे के सिम्बायोसिस के अलावा विनोद भाव विश्वविद्यालय समेत दूसरे कॉलेजों की फैशन टेक्नोलॉजी की छात्राएं अब इस कला को सीख रहे हैं.
सोहराई पेंटिंग की साड़ी पहनकर आदिवासी लड़कियां कैटवॉक कर रही हैं. इसमें उनकी मदद फैशन टेक्नोलॉजी से जुड़ी छात्राएं कर रही हैं. इसमें मुख्य रूप से पद्मश्री बुलू इमाम का पूरा परिवार जिसमें उनकी पुत्रवधू अलका इमाम, बेटा जस्टिन और बेटी का भरपूर सहयोग मिल रहा है. अलका इमाम के पति और पुत्र का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा है. उनके पुत्र एडम इमाम इसकी पूरी पृष्ठभूमि तैयार करते हैं, डिजाइन कैसा होगा उसका पूरा खाका तैयार करते हैं.
सोहराई झारखंड की एक पारंपरिक कला है जो घरों की दीवारों पर की जाती है. बड़कागांव के बादाम के इसको गुफा में इस कला को देखा जा सकता है. 5000 वर्ष से अधिक पुरानी इस कलाकृति में प्रकृति को स्थान दिया जाता है. फैशन डिजाइनिंग की छात्राएं कहती हैं कि वह दिन दूर नहीं है कि पेरिस फैशन शो में भी सोहराई की धमक देखने को मिलेगी. इसे लेकर नया जेनरेशन काम भी कर रहा है.
ऐसा कहा जाता है कि बादाम राजा ने इस कलाकृति को बनाया था. इसमें बनने वाले डिजाइनों में पेड़-पौधे, पत्ते, जीव-जंतु आदि के चित्र होते हैं. इसकी बारीकी इतनी है कि हर पत्ते और डिजाइन का अपना एक खास मतलब होता है. इस कला को पारंपरिक तौर पर जिंदा रखना एक बड़ी चुनौती है. ऐसे में इसे फैब्रिक्स कपड़ों पर लाना जरूरी समझा जा रहा था. राज्य में पहले भी इसके लिए बहुत कोशिश हुई हैं. इस कला पर विशेष रूप से काम कर रही अलका इमाम का कहना है कि नई पीढ़ी इसे कैसे स्वीकार करें इसे देखते हुए कोशिश की जा रही है कि इस फैशन की दुनिया में भी लाया जाए.