रांचीः संविधान की पांचवीं अनुसूची में शामिल क्षेत्रों के आदिवासियों के लिए 24 दिसंबर का दिन बेहद खास है. क्योंकि 1996 में इसी दिन केंद्र सरकार ने ‘पेसा’ यानी “The Provisions of the Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) Act, 1996” नाम से गजट प्रकाशित किया था. लेकिन आज तक अनूसूचित क्षेत्र के जनजातीय समाज को इस कानून के तहत मिलने वाला अधिकार नहीं मिला. तब से इस कानून के तहत मिले अधिकार को पाने के लिए आदिवासी संगठन कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं.
आदिवासी बुद्धिजीवी मंच की दलील
आदिवासी बुद्धिजीवी मंच ने 9 दिसंबर 2024 को राज्य सरकार के पांच अधिकारियों के खिलाफ हाईकोर्ट में अवमानना याचिका भी दाखिल की है. मंच के राष्ट्रीय संयोजक विक्टर कुमार मालतो का कहना है कि 29 जुलाई 2024 को हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को दो माह के भीतर पी-पेसा नियमावली बनाकर लागू करने को कहा था. आदेश के 12वें प्वाइंट में झारखंड पंचायत राज्य अधिनियम, 2001 को अमान्य करते हुए अनुसूचित क्षेत्र में पेसा अधिनियम 1996 को लागू करने का आदेश दिया था. क्योंकि अविभाजित बिहार में ही पेसा एक्ट आ चुका था, लेकिन झारखंड बनने के बाद एकीकृत बिहार के आदेश को लागू नहीं किया गया.
आदिवासी बुद्धिजीवी मंच की दलील है कि “पेसा कानून की अनदेखी कर तीन बार यानी 2010, 2015 और 2022 में अनुसूचित जिलों में भी त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव कराया गया, जो गैर कानूनी और असंवैधानिक है. क्योंकि यह कानून ग्राम सभाओं को स्वशासन और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन का हक देता है”. उन्होंने राज्य सरकार से पेसा के 23 प्रावधानों को लागू करने के लिए पेसा नियमावली जारी करने की मांग की है.
पंचायती राज विभाग का तर्क
झारखंड पंचायती राज विभाग की निदेशक निशा उरांव का कहना है कि पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया यानी पेसा को लेकर जुलाई 2023 में औपबंधित ड्राफ्ट प्रकाशित कर एक माह के भीतर सुझाव और आपत्तियां मांगी गई थी. इस क्रम में 200 से ज्यादा सुझाव और आपत्तियां आईं. कुछ सुझावों को ड्राफ्ट में शामिल किया गया है और गैर-वाजिब आपत्तियों को रिजेक्ट किया जा चुका है. उनका कहना है कि “ पेसा का मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक गया था. जहां माननीय न्यायालय ने झारखंड पंचायती राज अधिनियम,2001 को पेसा के अनुरूप बताया था और चुनौती देने वालों की याचिका खारिज कर दी थी”. झारखंड हाईकोर्ट का यह फैसला प्रभु नारायण सैमुएल सुरीन बनाम केंद्र सरकार मामले में आया था.
आदिवासी संगठनों का तर्क