पटनाः त्रिपुरा सुंदरी नगर रक्षिका के नाम से दक्षिण बिहार के मंदिरों में शुमार मसौढ़ी की काली माई नवरात्रि में भक्तों के बीच आस्था का केंद्र बना हुआ है. जिसका इतिहास हजारों साल पुराना है. इस मंदिर में मां काली की प्रतिमा स्थापित है, जो त्रिपुरा सुंदरी और नगर रक्षिका के नाम से जानी जाती हैं. श्रद्धालुओं के लिए यह आस्था का केंद्र है. जो भी भक्त यहां श्रद्धा के साथ पूजा करने के लिए आते हैं, वे कभी यहां से खाली हाथ नहीं लौटते हैं.
टेकारी महाराज की पत्नी ने शुरू की थी पूजाः मंदिर के इतिहास के बारे में बताया जाता है कि गया के टेकारी महाराज की पत्नी मां काली की बहुत बड़ी भक्त थी. रानी जब तालाब में स्नान करने के लिए जाती थी, उससे पहले वे मिट्टी का पिंडी बनाया करती थीं. स्नान करने के लिए रानी इस पिंडी की पूजा-अर्चना करती थी. यहीं से मां काली की पूजा आरंभ हुई. जिस तालाब में महारानी स्नान करती थी उसका नाम राजारानी तालाब कहते थे, अब कालीघाट के नाम से जाना जाता है.
पिंडी के रूप में होती थी पूजाः बताया जाता है कि हजारों साल पहले यहां मां काली को पिंडी के रूप में पूजा जाता था. 1908 से धीरे धीरे लोगों में मां काली के प्रति आस्था बढ़ती गई. 1953 में राजस्थान के काला संगमरमर से मां काली की प्रतिमा बनाया गया, तब से इस मंदिर की और चर्चा होने लगी. नवरात्र के मौके पर श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है, अपनी अपनी मन की मुराद लेकर इस मंदिर में पूजा करने आते हैं और कहा जाता है कि हर भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है.
"त्रिपुरा सुंदरी नगर रक्षिक के नाम से विख्यात यह काली मंदिर मसौढ़ी वासियों के लिए आस्था का केंद्र है. नवरात्र में हजारों की संख्या में भीड़ उमड़ती है. जिसका पौराणिक इतिहास बहुत ही पुराना है.भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती है."-ई.रविशंकर, अध्यक्ष, मंदिर कमेटी
साध्वी भैरवी पहली बार पुजारी बनी थीः मंदिर के इतिहास के बारे मे मंदिर कमेटी के अध्यक्ष इंजीनियर रविशंकर कुमार ने बताया कि मां काली को मिट्टी का पिंडी के रूप में पूजा जाता था. उस समय बनारस की एक साध्वी भैरवी यहां पर रहती थी. वहीं मां काली की पूजा अर्चना करती थी. इसके बाद बनारस के बाबा के नाम से विख्यात था. महंत यहां पूजा अर्चना करते थे.