Lok Sabha Result 2024का लोकसभा चुनाव मध्य प्रदेश की राजनीति में किन नेताओं के पॉलीटिकल करियर का टर्निंग पाइंट है. किन नेताओं की सियासत इस चुनाव के बाद 360 डिग्री पर घूम जाने वाली है. एमपी के वो पांच सियासी पांडव जो 2024 की महाभारत जिनका राजनीतिक कद और आगे की सियासी जमीन तय करेगी. कौन हैं वो नेता जिनके लिए 2024 का चुनाव बताएगा कि वो राजनीति की जमीन देखेंगे या नया आसमान. कौन हैं वो नेता और क्यों लोकसभा के ये चुनाव उनके राजनीतिक जीवन का सबसे जरूरी और मुश्किल चुनाव बन गए हैं.
सन्यास के पहले कमलनाथ की अग्निपरीक्षा क्या
छिंदवाड़ा की जिस सीट को कमनलाथ ने कांग्रेस का गढ़ बना दिया. एमपी की जिस सीट का जनादेश बदलने बीजेपी को एमपी से लेकर केन्द्र तक पार्टी ने पूरी ताकत झौंक दी. वो मजबूत जमीन पर इस बार कमलनाथ की अग्निपरीक्षा है. पूर्व विधायक दीपक सक्सेना से लेकर सैय्यद जाफर तक इस चुनाव में कमलनाथ की पूरी सेना टूट चुकी है. बेशक वो खुद चुनाव मैदान में नहीं हैं, लेकिन अपने बेटे को इस जमीन पर मजबूती से जमाने के इस चुनाव के नाते ये उनके लिए सबसे कठिन परीक्षा है. 2020 का उपचुनाव और फिर 2023 के विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद कमलनाथ की राजनीति पर पूर्ण विराम लग चुका है.
वे खुद भी वानप्रस्थ का इशारा कर चुके हैं, लेकिन चाहते हैं कि उनके सन्यास से पहले जिस जमीन को उन्होंने दशकों तक सींचा है. उसे विरासत में अपने बेटे को देकर जाएं. वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश भटनागर कहते हैं, 'छिंदवाड़ा कमलनाथ की राजनीति की प्रयोगशाला भी रहा है. एक ऐसा आदर्श भी कि जिसे दिखाकर कहा जा सकता है कि कोई अपनी संसदीय सीट को अपनी जमीन कैसे बनाता है, लेकिन जो राजनीतिक जमीन अब तक बीजेपी का सबसे बड़ा रण क्षेत्र बनी हुई थी. इस बार के चुनाव में वो खुद कमलनाथ के लिए सबसे बड़ी मुश्किल बन गई है. विषय ये नहीं कि नकुलनाथ मैदान में है. नकुलनाथ के होते हुए भी साख दांव पर तो कमलनाथ की ही है. छिंदवाड़ा के नतीजे तय करेंगे कि कमलनाथ की सींची जमीन नकुलनाथ को सौंपने का फैसला छिंदवाड़ा मंजूर किया या नहीं.
चुनावी सियासत से सन्यास से पहले जीत क्यों जरुरी
दिग्विजय सिंह ने 77 बरस की उम्र में भी पार्टी के आदेश पर चुनाव लड़ने का फैसला किया, लेकिन अपने नाम के एलान के साथ उन्होंने कह दिया कि ये चुनाव कांग्रेस कार्यकर्ताओं को लड़ना है. चुनावी राजनीति से सन्यास की तरफ बढ़ चुके दिग्विजय सिंह को भोपाल के बाद राजगढ़ लोकसभा सीट से जब उतारा गया तो, उन्होंने अपने इलाके की जनता से उसी जज्बात से बात की और इतने बरसों के संबंध का वास्ता दिया. चुनाव शबाब पर आते-आते सभाओं में दिग्विजय ये दोहराने लगे थे कि ये उनकी चुनावी राजनीति का आखिरी चुनाव है. सात मई को वोटिंग के दौरान दिग्विजय ने फिर यही बात दोहराई.
असल में भोपाल जब हिंदुत्व की प्रयोगशाला बना, तब 2019 के लोकसभा चुनाव में भी इसी ढंग से मुकाबले में उन्हें उतारा गया. जब कांग्रेस उम्मीदवारों के संकट से गुजर रही थी कि तब भी पार्टी ने अपने यस मैन को मैदान में उतारने में देर नहीं की. वरिष्ठ पत्रकार अरुण दीक्षित कहते हैं 'कोई भी राजनेता की ये ख्वाहिश होती है कि चुनावी राजनीति से उसकी सम्माजनक विदाई हो. अगर दिग्विजय सिंह ये बयान देने के साथ कह रहे हैं कि ये उनके राजनीतिक जीवन का आखिरी चुनाव है तो वजह यही है कि वे चाहतें है कि इस इमोशनल जुड़ाव के साथ जनादेश आए और सम्मानजनक तरीके से वे चुनावी राजनीति से सनयास लें.'
पार्टी बदल गई अब सिंधिया की साख का चुनाव
सिंधिया सिंधिया हैं, पार्टी कोई हो. उनका जनाधार और जादू बरकरार रहता है. सिंधिया समर्थक जो दबी जुबान से ये कहते आए हैं. बीजेपी में आने के बाद पहली बार चुनावी जमीन पर उतरे सिंधिया को लेकर आत्मविश्वास का इम्तेहान ये चुनाव है. कांग्रेस में रहते हे केवल 2019 का चुनाव हारे सिंधिया को अपनी सियासी विरासत की जमीन गुना शिवपुरी लोकसभा सीट का खोया विश्वास तो पाना ही है. बीजेपी को भी फिर ये बताना है कि सिंधिया उनकी राईट च्वाईस हैं. इस लिहाज से भी इस चुनाव में उनकी जोरदार जीत जरुरी है.
हालांकि राजनीतिक विश्लेषक दिनेश गुप्ता कहते हैं, 'बीजेपी में आने के बाद सिंधिया अपने हिस्सा का लिटमस टेस्ट दे चुके हैं. 22 सीटों पर हुए उपचुनाव ने ये बता दिया था कि सिंधिया की ताकत क्या है. फिर उसके बाद 2023 के विधानसभा चुनाव में ग्वालियर चंबल के चुनाव नतीजों ने भी इस पर मुहर लगाई. हां, बीजेपी में आने के बाद उनकी राजनीतिक यात्रा प्रवाह में बढ़ती रहे उसके लिए बेशक ये जीत जरुरी है.'