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बिहार कांग्रेस का ऐसा हाल क्यों है..? बिना 'लालटेन' के 'हाथ' उठता ही नहीं

कहते हैं वक्त के साथ बहुत कुछ बदलता रहता है. पर बिहर कांग्रेस की स्थिति थोड़ी अलग है. बदलने का नाम ही नहीं ले रहा.

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By ETV Bharat Bihar Team

Published : Oct 31, 2024, 5:30 PM IST

Updated : Oct 31, 2024, 5:52 PM IST

पटना :देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस, एक समय बिहार में सबसे मजबूत पार्टी हुआ करती थी. आजादी से लेकर 1989 तक कमोबेश बिहार में कांग्रेस की ही सरकार रही. एक समय था कि बिहार कांग्रेस के कई बड़े नेताओं का दबदबा राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखता था. 1990 में लालू यादव के बिहार की सत्ता में आने के बाद धीरे-धीरे कांग्रेस बिहार में कमजोर होती गई.

पहले राबड़ी आवास फिर सदाकत आश्रम :वरिष्ठ पत्रकार इंद्रभूषण का कहना है कि जब शकील अहमद बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष थे और राजद सरकार में मंत्री थे. जब वह दिल्ली से आते थे तो एयरपोर्ट से पहले राबड़ी आवास पर आकर मुलाकात करते थे, उसके बाद सदाकत आश्रम जाते थे. शकील अहमद के समय से चली हुई परंपरा अभी तक चल रही है.

वरिष्ठ पत्रकार इंद्रभूषण (ETV Bharat)

''जगन्नाथ मिश्रा का दौड़ खत्म होने के बाद कांग्रेस की स्थिति यह हो गई है कि प्रदेश अध्यक्ष तो रहते हैं. लेकिन उनका पहला कार्यालय 10 सर्कुलर रोड (राबड़ी आवास) रहता है और बाद में सदाकत आश्रम (कांग्रेस मुख्यालय).''- इंद्रभूषण, वरिष्ठ पत्रकार

कांग्रेस क्यों हुई कमजोर ? : बिहार में कांग्रेस आखिर क्यों कमजोर हुई इसको लेकर वरिष्ठ पत्रकार इंद्रभूषण ने बड़ी बात कही है. उन्होंने कहा कि जब से बीजेपी शासन में आयी है, खासकर 2013-14 में नरेंद्र मोदी के आने के बाद से कांग्रेस ने हिंदी बेल्ट के 3 प्रदेशों कंप्लीट अपने सहयोगी दल पर पार्टी को सौंप दिया है. इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड शामिल है.

''बिहार में तेजस्वी यादव तय करते हैं कि कांग्रेस को क्या मिलेगा और क्या नहीं मिलेगा. झारखंड में अभी आप देख चुके हैं हेमंत सोरेन ही सब तय कर रहे है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव तय करते हैं. कांग्रेस की इन तीनों प्रदेश में कोई कमेटी नहीं बनती है ना कोई नेताओं का पैनल तैयार होता है. कांग्रेस पार्टी अपने अपने सहयोगी दल पर आश्रित हो गए हैं.''- इंद्रभूषण, वरिष्ठ पत्रकार

कांग्रेस आला कमान का है सख्त निर्देश : वरिष्ठ पत्रकार इंद्रभूषण का कहना है कि कांग्रेस के आला कमान का साफ तौर पर निर्देश है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में सहयोगी दलों के खिलाफ कुछ नहीं बोलना है. इंद्रभूषण का कहना है कि लालू प्रसाद यादव कभी बिहार की सत्ता में अपने दम पर नहीं आए. शासन की शुरुआत बीजेपी के सहयोग से किया. उसके बाद कांग्रेस उनका सहयोगी दल बना. बिहार में कांग्रेस की स्थिति ऐसी है कि चाहे वह कौकब कादरी हों, मदन मोहन झा हों या फिर अखिलेश प्रसाद सिंह, सबों की स्थिति एक जैसी ही है.

जगन्नाथ मिश्रा बिहार कांग्रेस के 'आखिरी शासक' : बिहार में डॉ जगन्नाथ मिश्रा के नेतृत्व में आखिरी बार 1989 में कांग्रेस की सरकार बनी थी. डॉ जगन्नाथ मिश्रा 1975 से 1977, 1980 से 1983 और 1989 से 1990 तक मुख्यमंत्री रहे. इसके बाद पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में वह केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बने.

स्वर्गीय जगन्नाथ मिश्रा (फाइल फोटो) (ETV Bharat)

जगन्नाथ मिश्रा के बाद कांग्रेस उभर नहीं पायी :1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने और कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी बनी. धीरे-धीरे जगन्नाथ मिश्रा का प्रभाव कांग्रेस पार्टी में कम होने लगा. इसके बाद जगन्नाथ मिश्रा ने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाई. कहा जाता है कि इस समय के बाद बिहार में कांग्रेस धीरे-धीरे कमजोर होती गई. बाद के दिनों में कांग्रेस पूरी तरीके से लालू प्रसाद यादव पर निर्भर होती चली गई.

RJD और कांग्रेस की दोस्ती :बिहार में कांग्रेस एवं राजद की दोस्ती की शुरुआत 1998 लोकसभा चुनाव से हुई थी. उस समय बिहार का विभाजन नहीं हुआ था. साल 2000 में विधानसभा के चुनाव में राजद एवं कांग्रेस की दोस्ती टूट गई थी. कांग्रेस बिहार की सभी 324 सीटों पर चुनाव लड़ी और 23 सीटों पर उसको जीत हासिल हुई, जबकि आरजेडी 293 सीट पर लड़कर 124 सीट जीतने में कामयाब हुई थी.

राजद के भरोसे कांग्रेस! :चूंकि किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था. ऐसे में एक बार फिर से कांग्रेस और राजद में गठबंधन हुआ. दोनों ने मिलकर बिहार में सरकार बनाई और कांग्रेस के सभी 23 विधायक राजद की सरकार में मंत्री बने थे. 2004 लोकसभा का चुनाव भी कांग्रेस और राजद ने साथ लड़ा. राजद ने 22 और कांग्रेस ने तीन सीट जीतने में कामयाब हुई थी. UPA-1 की सरकार में आरजेडी मजबूत स्थिति में थी. लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री बने और राजद के कई सांसदों को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली.

लालू यादव (फाइल फोटो) (ETV Bharat)

2005 में हार के बाद बढ़ने लगी दूरी : इसके बाद बिहार से झारखंड अलग हो गया. 2005 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में भी राजद और कांग्रेस का गठबंधन रहा. राजद 175 सीट पर लड़ी और 54 सीट जीतने में कामयाब रही, वहीं कांग्रेस 51 सीट पर चुनाव लड़ी और मात्र 9 सीट जीत सकी. तब पहली बार नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार का गठन हुआ था.

2008 में शुरू हुआ विवाद :2008 में बिहार प्रदेश कांग्रेस की कमान पार्टी के वरिष्ठ नेता अनिल शर्मा को सौंपी गई. अनिल शर्मा ने बिहार में कमजोर हो रही कांग्रेस को फिर से मजबूत करने के लिए पहल शुरू की. अनिल शर्मा ने बिहार में पार्टी को मजबूत करने के लिए पदयात्रा शुरू की.

अनिल शर्मा की जिद और कांग्रेस ने RJD का दाम छोड़ दिया : अनिल शर्मा ने खुलकर पार्टी की मजबूती के लिए राजद एवं लालू प्रसाद यादव का विरोध शुरू किया. पार्टी को अपने दम पर चुनाव लड़ने के लिए आला कमान को फैसला करने को कहा गया. लगातार राजद और कांग्रेस के बीच दूरी बढ़ती गई और निष्कर्ष यही निकला कि कांग्रेस ने आगामी चुनाव अपने दम पर लड़ने का फैसला किया.

2009 में गठबंधन में हुई टूट :कांग्रेस और राजद के बीच 2009 लोकसभा चुनाव में एक बार फिर से गठबंधन टूटा. आरजेडी 22 से घटकर मात्र चार सीट पर सीमित रह गई, जबकि कांग्रेस बिहार में अकेले चुनाव लड़कर तीन सीट जीतने में कामयाब रही. 2010 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस और राजद ने अलग-अलग लड़ने का फैसला किया. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस चार सीटों पर सिमट गई तो राष्ट्रीय जनता दल 22 सीटों पर सिमट गया.

अनिल शर्मा की हुई छुट्टी : 2010 में कांग्रेस ने अपने बिहार अध्यक्ष अनिल शर्मा को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया. चौधरी महबूब अली कैसर को नया प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया. इसके बाद लगातार कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के बीच दोस्ती बनी रही. चौधरी महबूब अली कैसर के बाद कांग्रेस की कमान पार्टी के युवा चेहरे अशोक चौधरी को सौंपा गया.

2013 में हुआ था कमिटी का गठन : 2013 में अशोक चौधरी को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था. अशोक चौधरी के कार्यकाल में 255 सदस्यों की प्रदेश कार्यकारिणी बनाई गई थी. जिसमें 15 उपाध्यक्ष, 25 महासचिव, 76 सचिव, 45 संगठन सचिव, 1 कोषाध्यक्ष ,77 कार्यकारिणी के सदस्य और विशेष आमंत्रित सदस्य बनाया गया था.

अशोक चौधरी, कौकब कादरी से मदन मोहन झा तक का सफर : 25 सितंबर 2017 को अशोक चौधरी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष से हटाए गये. हालांकि वह बाद में जेडीयू ज्वाइन कर लिए. अशोक चौधरी के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष से हटने के बाद कौकब कादरी को प्रदेश कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया. इसके बाद मदन मोहन झा कांग्रेस के पूर्णकालिक प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए.

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7 साल से कमिटी का इंतजार : मदन मोहन झा के 4 वर्षों के कार्यकाल में कांग्रेस की प्रदेश कमेटी का गठन नहीं हो सका. उन्हीं के कार्यकाल के दौरान 2019 में लोकसभा का चुनाव और 2022 में बिहार विधानसभा का चुनाव भी लड़ा गया. 11 दिसंबर 2022 को बिहार कांग्रेस की कमान अखिलेश प्रसाद सिंह को सौंप दी गयी. इनका भी कार्यकाल लगभग 2 वर्षों का हो चुका है लेकिन अब तक कांग्रेस के प्रदेश कमेटी का गठन नहीं हो पाया. देखा जाए तो 7 वर्षों से बिहार में बिना किसी कमेटी के पार्टी चल रही है.

3 प्रभारी भी बदले गए : पिछले 10 वर्षों में बिहार में कांग्रेस को मजबूत करने के लिए 3 प्रभारी बने. अशोक चौधरी के कार्यकाल के दौरान शक्ति सिंह गोहिल को बिहार कांग्रेस का प्रभारी बनाया गया था. उन्हीं के कार्यकाल में 2014 का लोकसभा चुनाव और 2015 का विधानसभा चुनाव हुआ. इसके बाद भक्त चरणदास को बिहार का प्रभारी बनाया गया. 2024 में मोहन प्रकाश को बिहार का प्रभारी बनाया गया. भक्त चरणदास और मोहन प्रकाश के कार्यकाल में भी बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी का गठन नहीं हो पाया.

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Last Updated : Oct 31, 2024, 5:52 PM IST

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