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मातमी धुनों के साथ निकाला गया ताजिये का जुलूस, जानें मुहर्रम में मातम क्यों मनाते हैं शिया?, पढ़ें कर्बला की पूरी कहानी - History of Muharram - HISTORY OF MUHARRAM

History of Muharram पूरे देश में मुहर्रम के मौके पर ताजिए निकाले गए और आज ताजियों को क्षेत्र की कर्बला में सुपुर्दे ख़ाक किया गया. आखिर मुहर्रम में क्यों निकाले जाते हैं ताजिये और इस्लाम में क्यों खास है, कर्बला की जंग देखिये इस रिपोर्ट में...

History of Muharram
मुहर्रम (photo-ETV Bharat)

By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : Jul 17, 2024, 8:48 PM IST

मातमी धुनों के साथ निकाला गया ताजिये का जुलूस (video-ETV Bharat)

रुड़की: मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है. इस महीने की 10 तारीख यानी आशूरा के दिन दुनियाभर में मुस्लिम समुदाय के लोग इस्लाम धर्म के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के नवासे हजरत इमाम हुसैन की इराक के कर्बला में हुई शहादत की याद में ताजिया निकाल कर उन्हें याद करते हैं. आज बुधवार के दिन मुहर्रम माह की 10 तारीख है, जिसको लेकर पूरे भारत में जगह-जगह ताजिये निकालकर फातिहा और तिलावत-ए-कुरआन किया गया. वहीं मोहर्रम माह की 9 तारीख की देर शाम ताजियों को निकाला जाता है और अगले दिन 10 तारीख को क्षेत्र की कर्बला में सुपुर्दे ख़ाक किया जाता है.

आलम-ए-इस्लाम की तारीख बन गई कर्बला की जंग:बता दें कि कर्बला के मैदान में नवासा ए-रसूल हजरत इमाम हुसैन और उनके कुनबे को यजीद के लश्कर ने 10 मुहर्रम को शहीद कर दिया था. शहादत पाने वालों में इमाम हुसैन का छह माह का बेटा अली असगर, 18 साल का जवान अली अकबर, भाई अब्बास अलमदार, दो भांजे औनो मोहम्मद, भतीजा कासिम और दोस्त एहबाब शामिल थे. 10 मुहर्रम को हुसैन का भरा घर लूट लिया गया.

ये है पूरा वाक्यादरअसल वाक्या साल 680 (61 हिजरी) का है, इराक में यजीद नामक इस खलीफा (बादशाह) ने इमाम हुसैन को यातनाएं देना शुरू कर दिया, उनके साथ परिवार, बच्चे, बूढ़े-बुजुर्ग सहित कुल 72 लोग थे. वह कूफे शहर की ओर बढ़ रहे थे, तभी यजीद की सेना ने उन्हें बंदी बना लिया और कर्बला (इराक का प्रमुख शहर) ले गई. कर्बला में भी यजीद ने दबाव बनाया कि उसकी बात मान लें, लेकिन इमाम हुसैन ने जुल्म के आगे झुकने से साफ इनकार कर दिया. इसके बाद यजीद ने कर्बला के मैदान के पास बहती नहर से सातवें मुहर्रम को पानी लेने पर रोक लगा दी.

हुसैन के काफिले में 6 माह तक के बच्चे भी थे, अधिकतर महिलाएं थीं, पानी नहीं मिलने से ये लोग प्यास से तड़पने लगे. इमाम हुसैन ने यजीद की सेना से पानी मांगा, लेकिन यजीद की सेना ने शर्त मानने की बात कही. यजीद को लगा कि हुसैन और उनके साथ परिवार, बच्चे व महिलाएं टूट जाएंगे और उसकी शरण में आ जाएंगे, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ. 9वें मुहर्रम की रात हुसैन ने परिवार व अन्य लोगों को जाने की इजाजत दी और रात में रोशनी बुझा दी, लेकिन उन्होंने कुछ देर बाद जब रोशनी की तो, सभी वहीं मौजूद थे. सभी ने इमाम हुसैन का साथ देने का इरादा कर लिया. इसी रात की सुबह यानी 10वें मुहर्रम को यजीद की सेना ने हमला शुरू कर दिया. 680 (इस्लामी 61 हिजरी) को सुबह इमाम और उनके सभी साथी नमाज पढ़ रहे थे, तभी यजीद की सेना ने घेर लिया, इसके बाद हुसैन व उनके साथियों पर शाम तक हमला कर सभी को शहीद कर दिया.

क्या कहता है इतिहास :इतिहास के अनुसार, यजीद ने इमाम हुसैन के छह माह और 18 माह के बेटे को भी मारने का हुक्म दिया. इसके बाद बच्चों पर तीरों की बारिश कर दी गई. इमाम हुसैन पर भी तलवार से वार किए गए. इस तरह से हजारों यजीदी सिपाहियों ने मिलकर इमाम हुसैन सहित 72 लोगों को शहीद कर दिया. अपने हजारों फौजियों की ताकत के बावजूद यजीद, इमाम हुसैन और उनके साथियों को अपने सामने नहीं झुका सका. दीन के इन मतवालों ने झूठ के आगे सिर झुकाने की बजाय अपने सिर को कटाना बेहतर समझा और वह लड़ाई आलम-ए-इस्लाम की एक तारीख बन गई. जंग का नतीजा तो जो हुआ वह होना ही था, क्योंकि एक तरफ जहां हजरत इमाम हुसैन के साथ सिर्फ 72 आदमी थे, जबकि यजीद के साथ हजारों की फौज थी.

आज सुपुर्दे खाक किए गए ताजिए:नतीजा यह हुआ कि जंग में एक-एक करके हजरत इमाम हुसैन के सभी साथी शहीद हो गए. आखिर में हुसैन ने भी शहादत हासिल की. इस्लामी इतिहास की इस बेमिसाल जंग ने पूरी दुनिया के मुसलमानों को एक सबक दिया कि हक की बात के लिए यदि खुद को भी कुर्बान करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए. वहीं मुहर्रम की 9 तारीख को हजरत इमाम हुसैन और उनके जांनिसारों की याद में ताजिए निकाले गए, मर्सिया पढ़ी गई, और जगह-जगज जलसों का आयोजन किया गया, अकीदतमंदों ने लंगर और सबील वितरित की. आज यानी मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए सुपुर्दे खाक किए गए.

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