नैनीताल: यूं तो पूरे देश में होली का पर्व मनाया जाता है, लेकिन कुमाऊं की खड़ी होली का अपना ही अलग रंग और गौरवशाली इतिहास है. पहाड़ की होली का रंग कुमाऊं में ही देखा जाता है. यहां होलियार ढोल और राग पर झूमने को मजबूर कर देते हैं. होलियार कुमाऊंनी होली का गौरवशाली इतिहास का वर्णन अपनी होली गायन के दौरान करते हैं. हालांकि, पिछले कुछ सालों में रीति रिवाज परंपराओं में बदलाव देखने को मिल रहा है, लेकिन आज भी कुमाऊं की ये होली देशभर के लिए नजीर बनी हुई है.
दरअसल, नैनीताल में 28वां होली महोत्सव का आयोजन किया गया. सांस्कृतिक संस्था युग मंच की ओर से पहली बार महिलाओं और पुरुषों की संयुक्त खड़ी होली देखने को मिला. इस दौरान चंपावत और धौलादेवी अल्मोड़ा की टीमों ने गायन किया. मां नयना देवी मंदिर परिसर में आयोजित महोत्सव में 35 युवाओं की टीम ने भी प्रस्तुतियां दी. यह युवा पहली बार मतदाता बने हैं.
ऐसे हुई थी कुमाऊंनी होली की शुरुआत:होली के जानकार जहुर आलम बताते हैं कि कुमाऊंनी होली की शुरुआत तो 15वीं शताब्दी में चंपावत के चंद राजाओं के महल और काली कुमाऊं सुई क्षेत्रों में मानी जाती है. चंद राजवंश के प्रसार के साथ ही यह पूरे कुमाऊं क्षेत्र तक फैली.
कुमाऊं में अल्मोड़ा, चंपावत, पिथौरागढ़ , बागेश्वर जिलों में इस होली का आयोजन किया जाता है. जहां राग, दादरा और राग कहरवा में गाए जाने वाले इस होली का गायन पक्ष में कृष्ण राधा, राजा हरिश्चंद्र, श्रवण कुमार समेत रामायण और महाभारत काल की कथाओं का वर्णन किया जाता है.