शिमला: हिमाचल के सेब की महक आज देश और दुनिया के कौने कौन तक फैल रही है। हिमाचल की आर्थिक सेहत सुधारने का सबसे सबसे बड़ा स्तंभ बन गया। प्रदेश की जीडीपी में अकेले सेब का योगदान सालाना 5 हजार करोड़ का है। हिमाचल को सेब से रुबरु अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी में करावाया था.
सबसे पहले कुल्लू के बंदरोल में 1870 में अंग्रेज अधिकारी कैप्टन आरसी ली ने यूरोप से पौधे मंगवाकर सेब का बगीचा लगवाया था, लेकिन उस सेब की किस्म और स्वाद की गुणवत्ता अच्छी नहीं थी. साल 1916 के आसपास शिमला से करीब 80 किलोमीटर दूर कोटगढ़ में अमरीकी नागरिक सैमुअल स्टोक्स ने रॉयल किस्म के सेब की खेती शुरू की थी.आज सेब प्रदेश की आर्थिकी की रीढ़ बन चुका है. सेब कारोबार एक उद्योग के रूप में उभरा है.
लकड़ी से यूनिवर्सल कार्टन तक का सफर
हिमाचल में शुरुआत में सेब को लकड़ी की पेटी में मंडियों में भेजा जाता था. सेब की ग्रेडिंग और आकार के आधार पर 10 इंच से 12 इंच की पेटीयों में सेब भरा जाता था, जिसमें 18 किलो से लेकर 20 किलो तक की पैकिंग की जाती थी. ये पेटियां रई और सफेदा जैसे पेड़ों की लकड़ी से बनाई जाती थी जो काफी मजबूत होती थी, लेकिन समय के साथ सेब उत्पादन में बढ़ोतरी हुई. सेब वृद्धि से लकड़ी की ज्यादा मांग के कारण जगलों पर इसका दबाव बढ़ गया था, जिस कारण सरकार ने हरे भरे पेड़ों से लदे जंगलों को बचाने के लिए बाजार में गत्ते की पेटी को उतारने का निर्णय लिया, जिससे कि पर्यावरण पर अधिक दबाव न पड़े.
गत्ते की पेटी जिसे टेलीस्कोपिक कार्टन भी कहा जाता है, पैकिंग करने में आसान व पर्यावरण के लिये नुकसान दायक न होने की वजह से ये प्रयोग सफल रहा, लेकिन लकड़ी की पेटी के मुकाबले इसमें सेब को वजन के अनुरूप भरने की कोई सीमा नहीं है. ये केवल 20 से 24 किलो सेब भरने के लिए बनाई गयी थी, लेकिन कुछ बागवानों ने इस सीमा से अधिक इसमें 30 से 35 किलो सेब भरना शुरू कर दिया, जिससे कि बाजार में असंतुलन पैदा हो गया. ऐसे में कांग्रेस सरकार ने 2023 में टेलीस्कोपिक कार्टन में अधिकतम 24 किलो की सीमा को तय किया, जो विश्वभर में सेब की पैकिंग का मापदंड है. इसलिए सरकार ने हिमाचल के सेब को भी इसी मापदंड से भरे जाने का निर्णय लिया.