गुड़ियों का संसार... (ETV Bharat Jaipur) जयपुर. आम तौर पर संग्रहालय का नाम आते ही सरकारी संरक्षण में इतिहास और संस्कृति को बयान करती तस्वीरें और कलाकृतियां नजर आती हैं, लेकिन जयपुर में एक निजी संस्था ने भी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को संजोया है, जो करीब पांच दशक से यहां आने वाले लोगों को गुड़ियों से जुड़ा इतिहास और इसकी जानकारी मुहैया करवा रहा है. जयपुर के आनंदीलाल मूक बधिर स्कूल में बने इस गुड़िया घर की स्थापना साल 1974 में भगवान बाई सेखसरिया चारिटेबल ट्रस्ट ने की थी, जिसका उद्घाटन साल 1979 में तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत ने किया था.
इस म्यूजियम में करीब 40 देशों और भारत के राज्यों की एक हजार गुड़ियाओं का संग्रह है, साथ ही हमारे देश के अलग-अलग राज्यों की सभ्यता, खेल और संस्कृति को बया करने वाली डॉल्स भी यहां मौजूद हैं. डॉल म्यूजियम की शोध के मुताबिक गुड़िया के साथ खेलने से बच्चों पर इसका गहरा असर पड़ता है. इससे बच्चों की मानसिक स्थिति और कौशल का विकास होता है. गुड़िया के साथ खेलने से बच्चे मजबूत भावनाओं के माध्यम से काम करने की क्षमता देता है.
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गर्दिश से गुलजार होने का इंतजार : जयपुर का यह डॉल म्यूजियम खुद में अनूठा है. स्थापना के बाद सत्तर और अस्सी के दशक में जयपुर आने वाले सैलानियों के बीच इसकी काफी लोकप्रियता थी. यहां मौजूद गुड़िया विजिटर्स को अलग-अलग देशों के पहनावे के अलावा हमारे देश की सांस्कृतिक विभिन्नता से रूबरू करवा देती थी, लेकिन वक्त गुजरने के साथ ही इसकी हालत बिगड़ती गई और लोगों का रुझान इस तरफ कम हो गया.
सेठ आनंदीलाल मूक बधिर स्कूल के प्रिंसिपल भारत शर्मा ने बताया कि म्यूजियम में रखी गुड़ियों की स्थिति भी खराब हो गई और रखरखाव की तरफ ध्यान नहीं गया. इसके बाद साल 2015 में जयपुर के एस.एस. भंडारी, एफ.सी.ए, सहित शहर के कुछ समर्पित नागरिकों ने म्यूजियम को फिर से संवारने का काम अपने कंधों पर लिया. इसके बाद मौजूदा हॉल का पुनर्निर्माण किया गया और एक नए हॉल को इससे जोड़ते हुए सेन्ट्रल लॉबी तैयार की गई. यहां लाई गई डॉल्स को लकड़ी के शोकेस में सजाया गया, ताकि इनका रखरखाव आसानी से किया जा सके. डॉल्स पर मौसम का असर ना हो, इसके लिए म्यूजियम में एयर कंडीशनर भी लगाया गया. इस म्यूजियम का दीदार करने के लिए विदेशी सैलानी को 100 रुपए खर्च करने होते हैं, तो देसी सैलानी को 20 रुपए और बच्चों का चार्ज 10 रुपए किया जाता है.
जयपुर का डॉल म्यूजियम है खास (ETV Bharat Jaipur) म्यूजियम से होने वाली आय को परिसर के मूक बधिर स्कूल के विकास में लगाया जाता है. संग्रहालय में रखी गई सैकड़ों डॉल्स में अमेरिका, ब्रिटेन, बल्गारिया, स्पेन, स्वीडन, डेनमार्क, जर्मनी, ग्रीस, मेक्सिको, आयरलैंड और स्विट्जरलैंड जैसे पश्चिमी देशों के अलावा जापान, मिस्र, अरब देश, अफगानिस्तान और ईरान जैसे मुल्कों की डॉल्स का कलेक्शन है. यहां देसी लिबास में सजी कठपुतलियों के अलावा आसाम, बंगाल, नागालैंड, महाराष्ट्र, तमिलनाडु के साथ-साथ बिहार के संथाल के स्त्री-पुरुषों की संस्कृति को दिखाती सजी-धजी गुड़ियाएं नजर आती हैं. डॉल म्यूजियम में मौजूद सबसे छोटी 2 इंच की गुड़िया यहां के विशेष आकर्षण का केन्द्र है. कुछ साल पहले यहां के कलेक्शन में कार्टून और सुपरहीरो कैरेक्टर्स को भी शामिल कर लिया गया.
यह रहा गुड़िया का इतिहास : जयपुर का डॉल म्यूजियम गुड़ियों के इतिहास से भी रूबरू करवाता है. यह बताता है कि प्राचीन काल से लेकर मनुष्यों और गुड़ियों के बीच एक खास रिश्ता रहा है. म्यूजियम की जानकारी के मुताबिक विलेन डॉर्फ वीनस (28,000 ईसा पूर्व 25,000 ईसा पूर्व) को दुनिया की पहली गुड़िया/डॉल माना जाता है, जो एक महिला की आकृति है. इसे साल 1908 में ऑस्ट्रिया के एक गांव, विलेन डॉर्फ के पास एक पेलियोलिथिक नाम की जगह पर तलाशा गया था. साल 2004 में इटली के एक गांव की खंडहरों में खुदाई के दौरान आर्कियोलॉजिस्ट्स ने एक 4000 साल पुराने सिर को खोजा. इसमें बालों के घुंघराले होने और रसोई के खिलौनों का होना यह जाहिर करता है कि खिलौने वाली डॉल्स का इतिहास कितना पुराना रहा है.
संग्रहालय के रिकॉर्ड के मुताबिक सबसे पुरानी गुड़ियां मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, लोहा, चमड़ा या मोम से बनाई गई थीं. इसी तरह से रोमन रैग गुड़ियां 300 ईसा पूर्व की खोज हो चुकी हैं. भारत में सबसे पुराने खिलौने वाली डॉल्स इंडस वैली सभ्यता से मिली, जो तकरीबन 5000 साल पुरानी हैं. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में मानव और पशु आकृतियों का सही मॉडलिंग भी इस तरह के खिलौनों में उस वक्त के कारीगरों की तकनीकी कुशलता का प्रमाण है. गुड़िया बनाने में इस्तेमाल होने वाला सामान वक्त के साथ बदलता रहता है. 19वीं सदी में गुड़ियों के सिर पोर्सेलिन के साथ बनने लगे, जिनका शरीर चमड़े, कपड़े, लकड़ी या पेपियर मैश का बना था. इसके बाद विक्टोरियन युग में विक्टोरिया रानी से प्रेरित नीली आंखों ने गुड़िया की भूरी आंखों को रिप्लेस कर दिया. इसके बाद 20वीं सदी में प्लास्टिक और पॉलीमर का उपयोग गुड़िया बनाने में शुरू हो गया.