कुल्लू: भारत में कई ऐसी इमारतें हैं, जो कई सदियों से टिकी हुई हैं और उन्हें देखने के लिए देश-दुनिया से बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं. वहीं, भारत के पहाड़ी इलाकों में भी एक ऐसी शैली है, जिससे बने हुए मकान भी सैकड़ों सालों से अपनी जगह पर खड़े हुए हैं और आज भी इस शैली के मकानों का भूकंप भी कुछ नहीं बिगाड़ पाया है. ये मकान काष्ठकुणी शैली से बनाए गए हैं.
काष्ठकुणी शैली के मकानों के संरक्षण में आगे आया ये ट्रस्ट
काष्ठकुणी से बने मकान हालांकि अब काफी कम हो रहे हैं, लेकिन पहाड़ी इलाकों में अभी भी इसी शैली से भवनों का निर्माण हो रहा है. हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू में हिमालय ब्रदर ट्रस्ट भी लोगों के पुराने काष्ठकुणी शैली के मकानों को बचाने की दिशा में काम कर रहा है. वहीं, अगली पीढ़ी को भी इस शैली से बने मकानों के महत्व के बारे में जानकारी दे रहा है, ताकि इस शैली से बनने वाले मकान पर्यावरण संरक्षण में भी अपनी भूमिका निभा सकें. जिला कुल्लू के पहाड़ी इलाकों में आज भी काष्ठकुणी शैली से बने मकान सैकड़ों सालों से खड़े हैं और इन मकानों की सुंदरता भी देखते ही बनती है.
सैलानियों की पसंद बने काष्ठकुणी शैली के मकान
हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्य की अगर बात करें तो यहां पर काष्ठकुणी शैली के मकान की संख्या अब काफी कम रह गई है, लेकिन भूकंप जैसी आपदा में ये मकान नुकसान से बचाने में काफी सहायक सिद्ध हो सकते हैं, क्योंकि काष्ठकुणी शैली में बनाए गए मकान की संरचना इस तरह से होती है कि बारिश और भूकंप भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं. ऐसे में काष्ठकुणी शैली के मकान अब पहाड़ी इलाकों में सैलानियों की भी पसंद बनते जा रहे हैं. ऐसे मकानों में सैलानी भी रहना खूब पसंद कर रहे हैं.
क्यों कम हो रही काष्ठकुणी शैली के मकानों की संख्या ?
हिमाचल प्रदेश के कई इलाकों में पहले लकड़ी की उपलब्धता अधिक होती थी और ग्रामीण इलाकों में सड़कें न होने के चलते सीमेंट, रेत व अन्य निर्माण सामग्री गांवों तक पहुंचानी मुश्किल होती थी. ग्रामीण इलाकों में जंगल से पत्थर और मिट्टी आसानी से उपलब्ध होने के चलते लोग यहां काष्ठकुणी शैली के मकानों को प्राथमिकता देते थे, लेकिन आज के दौर में लकड़ी की पर्याप्त उपलब्धता न होने के कारण और आग से बचाव के कारण लोग पक्के मकान बनाने को प्राथमिकता दे रहे हैं. प्रदेश के दुर्गम क्षेत्रों में कई गांव ऐसे हैं, जहां काष्ठकुणी शैली के मकान देखने को मिल जाते हैं, लेकिन शहरों में इनकी संख्या नाम मात्र ही रह गई है.
काष्ठकुणी शैली में नहीं इस्तेमाल होता सीमेंट
काष्ठकुणी शैली के मकानों में अधिकतर लकड़ी और पत्थर का इस्तेमाल होता है. इस शैली के मकान में सीमेंट का बिल्कुल भी प्रयोग नहीं किया जाता है और दीवारों पर मिट्टी और गोबर के मिश्रण से बने पदार्थ का प्लास्टर किया जाता है. साथ में लकड़ी इस्तेमाल की जाती है. गांव में घर एक दूसरे से सटे होने और घर की निचली मंजिल में घास व लकड़ी रखने की वजह से आग की एक चिंगारी से पूरे घर को राख में बदलते देर नहीं लगती है. कुल्लू जिले में अब तक भीषण अग्निकांडों में काष्ठकुणी शैली से बने पूरे के पूरे गांव भी आग की भेंट चढ़े चुके हैं. मणिकर्ण घाटी का मलाणा गांव दो बार पूरी तरह से जल चुका है, लेकिन पर्यावरण के लिहाज से यह मकान काफी सहायक सिद्ध होते हैं.
एक बार फिर काष्ठकुणी शैली की ओर आकर्षित हो रहे लोग
हिमाचल प्रदेश के अलावा जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड के पहाड़ों पर बने लकड़ी के इन मकानों को देखकर पर्यटक भी उनकी ओर खींचे चले आते हैं. हालांकि, बीते कुछ दशकों से जिला कुल्लू में कंक्रीट के जंगल बनने शुरू हुए और लोगों ने सीमेंट के मकान बनाने शुरू कर दिए थे. वहीं, पर्यावरण में आए बदलाव के चलते अब एक बार फिर से लोग पत्थर और लकड़ी से बने मकानों की ओर आकर्षित हो रहे हैं. ग्रामीण इलाकों में लोग काष्ठकुणी जिन्हें कुल्लवी बोली में काठकुणी भी कहा जाता है, उसी शैली के भवनों का निर्माण कर रहे हैं.