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चाइनीज झालरों के आगे मिट्टी के दियों की चमक फीकी, डिमांड घटने से कुम्हार के सामने रोजी रोटी का संकट

दीपक बनाने वाले बहा रहे अपनी बदहाली पर आंसू, मिट्टी और जरुरी सुविधा भी नहीं मिलने का आरोप

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कुम्हारों के कब आएंगे अच्छे दिन? (Photo Credit; ETV Bharat)

By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : 4 hours ago

सहारनपुर:कुम्हारों की जिंदगी को रौशन करने के लिए सरकार की तमाम योजनाओं और वोकल फॉर लोकल जैसे नारों के बाद भी इस दिवाली पर भी उनके घरों में अंधियारा छाया हुआ है. चाइनीज झालरों के बढ़ते चलन और मिट्टी सहित दूसरे सामनों की बढ़ी कीमतों के चलते मिट्टी के दियों की डिमांड साल दर साल घटती जा रही है. ऐसे में सदियों से पारंपरिक पेशा से जुड़े कुम्हार समाज के सामने रोजी रोटी का संकट गहराने लगा है. जिसके चलते वे अपने परंपरागत धंधे को छोड़ मेहनत मजदूरी करने लगे हैं. दिपावली पर मिट्टी का सामान तैयार करना उनके लिए महज एक सीजनल धंधा बनकर रह गया है.

मिट्टी के बर्तनों के कारोबार से जुड़े कुम्हार समाज के लोगों का कहना है कि, दिपावली ओर गर्मी के सीजन में मिट्टी से निर्मित बर्तनों की मांग थोड़ी बढ़ जाती हैं, लेकिन बाद के दिनों में वे मजदूरी कर किसी तरह अपना ओर अपने परिवार का भरण-पोषण कर पाते हैं. सरकार की ओर से भी किसी तरह की सहायता भी नहीं मिल रही है. वहीं बाजारों में इलेक्ट्रोनिक्स झालरों की चमक-दमक के बीच मिट्टी के दीपक की रोशनी धीमी पड़ती जा रही हैं, इसके चलते लोग दीपों का उपयोग सिर्फ पूजा के लिए ही करते हैं. यही कारण हैं कि इस पेशा को लोग धीरे-धीरे छोड़ते जा रहे हैं.

दीयों की डिमांड घटने से रोजी रोटी का संकट (Video Credit; ETV Bharat)

सहारनपुर जिले से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तहसील के घाड़ इलाके के गांव भाकरोड निवासी संजय कुमार का कहना हैं कि, बर्तन बनाने के चिकनी मिट्टी मिलने में काफी परेशानी होने लगी हैं. पहले मिट्टी बहुत सस्ती और आसानी से मिल जाती थी लेकिन अब मिट्टी बहुत महंगी हो गई हैं. मिट्टी की एक ट्रैक्टर ट्राली साढ़े तीन हजार से चार हजार रुपए में खरीदनी पड़ रही है. सिर्फ अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज को जिंदा रखने का प्रयास कर रहा हैं.

कुम्हार समाज के अमित कुमार का कहना है कि मिट्टी के बर्तन बनाना हमारा पुस्तैनी काम हैं, लेकिन मिट्टी मिलना एक बड़ी चुनौतीपूर्ण कार्य हो गया है. इसके साथ ही बाजार में चाइनीज माल आ जाने से मिट्टी के बर्तनों और दियों की मांग कम हो गई हैं. उसने बताया कि केंद्र सरकार की ओर से कुम्हारों को निःशुल्क चाक उपलब्ध कराए जाने की योजना का लाभ भी उन्हें नहीं मिल पाया है.

कुम्हार बचन सिंह का कहना है कि, महंगाई के इस दौर में रोजी रोटी कमाना टेढ़ी खीर साबित हो रही है. एक हजार दिये बनाने में लगभग तीन से चार महीने लग जाते हैं. एक दीपक कम से कम पचास पैसे का बनकर तैयार होता है. जिसे बेचने में लागत भी पूरी नहीं हो पाती हैं. नई पीढ़ी इस काम से मुंह मोड़ती जा रही है. भाजपा सरकार ने उम्मीद जगाई थी कि वह कुम्हारों के लिए कुछ करेगी लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा.

भाकरोड गांव के निवासी पंडित श्रीपाल शर्मा से कहा कि, मिट्टी से बने बर्तन अग्नि में पक कर तैयार होते हैं इसलिए ये पवित्र होते हैं. जिसके चलते पूजा में इस्तेमाल करने का प्रावधान है. वहीं श्रीपाल शर्मा ने लोगों का आह्वान किया कि, चाइनीज माल को त्याग कर मिट्टी से बने बर्तनों और दियों का ही प्रयोग करें ताकि हमारी संस्कृति भी बची रह सके और कुम्हार समाज का सहयोग भी हो सकेगा.


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