धर्मशाला: अमेरिका की पूर्व हाउस स्पीकर नैंसी पेलोसी 2 दिवसीय हिमाचल प्रदेश के दौरे पर आई हुई हैं. धर्मशाला स्थित मैक्लोडगंज दौरे पर उनके साथ अमेरिकी प्रतिनिधित्व दल के 6 अन्य सदस्य भी पहुंचे हुए है. आज अमेरिका की पूर्व हाउस स्पीकर नैंसी पेलोसी अपने अमेरिकी प्रतिनिधित्व दल के साथ तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मुलाकात करेंगी. इस दौरान चीन और तिब्बत के बीच चल रहे विवादों पर भी चर्चा करेंगी.
आज धर्मशाला में नैंसी पेलोसी तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मुलाकात करेंगी. नैंसी इससे पहले मई 2017 में भी दलाई लामा से मिलने भारत आई थीं. तब चीन ने अमेरिका को तिब्बत मामले में दखल के खिलाफ चेतावनी दी थी पेलोसी लंबे समय से तिब्बत की आजादी का समर्थन करती आई हैं.
अमेरिका में 12 जून को तिब्बत से जुड़ा एक बिल पास किया गया था. इसमें कहा गया था कि यूएस दुनियाभर में चीन के तिब्बत को लेकर फैलाए गए झूठ का जवाब देगा. इस दौरान अमेरिकी अधिकारी चीन के तिब्बत को अपना हिस्सा बताने वाले दावों को भी खारिज करेंगे. इस बिल के पास होने के बाद अमेरिकी सांसदों के इस दौरे को काफी अहम माना जा रहा है.
दरअसल चीन हमेशा से ही तिब्बत का साथ देने के लिए अमेरिका का विरोध करता आया है. ऐसे में नैंसी पेलोसी का यह दौरा विवाद को और बढ़ा सकता है. पेलोसी वही अमेरिकी नेता हैं, जिनके 2022 में ताइवान जाने पर चीन ने जंग की धमकी दी थी. तब नैंसी के प्लेन को अमेरिकी नेवी और एयरफोर्स के 24 एडवांस्ड फाइटर जेट्स ने एस्कॉर्ट किया था. इस दौरान चीन ने ताइवान को चारों तरफ से घेर कर युद्धाभ्यास भी किया था.
नैंसी पेलोसी ने 2008 के अपनी धर्मशाला यात्रा के दौरान कहा था कि तिब्बत में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अमेरिका अपने अभियानों को जारी रखेगा. उन्होंने 2019 में संसद में द तिब्बत पॉलिसी एक्ट पास कराने में मदद की थी. इस एक्ट के जरिए अमेरिका तिब्बत की पहचान को बचाने के लिए आवाज उठाता है. पेलोसी की वजह से ही अमेरिका में दलाई लामा का कद बढ़ा है. चीन और तिब्बत के बीच विवाद बरसों पुराना है. चीन का दावा है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी में चीन का हिस्सा रहा है. इसलिए तिब्बत पर उसका हक है.
वहीं, तिब्बत चीन के इस दावे को खारिज करता है. 1912 में तिब्बत के धर्मगुरु और 13वें दलाई लामा ने तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया था. उस समय चीन ने कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन करीब 40 सालों बाद चीन में कम्युनिस्ट सरकार आ गई. इस सरकार की विस्तारवादी नीतियों के चलते 1950 में चीन ने हजारों सैनिकों के साथ तिब्बत पर हमला कर दिया. करीब 8 महीनों तक तिब्बत पर चीन का कब्जा चलता रहा. आखिरकार 1951 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने 17 बिंदुओं वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए. इस समझौते के बाद तिब्बत आधिकारिक तौर पर चीन का हिस्सा बन गया.
हालांकि, दलाई लामा इस संधि को नहीं मानते हैं. उनका कहना है कि ये संधि दबाव बनाकर करवाई गई थी. इस बीच तिब्बती लोगों में चीन के खिलाफ गुस्सा बढ़ने लगा. 1955 के बाद पूरे तिब्बत में चीन के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन होने लगे. इसी दौरान पहला विद्रोह हुआ, जिसमें हजारों लोगों की जान गई. मार्च 1959 में खबर फैली कि चीन दलाई लामा को बंधक बनाने वाला है. इसके बाद हजारों की संख्या में लोग दलाई लामा के महल के बाहर जमा हो गए. आखिरकार एक सैनिक के वेश में दलाई लामा तिब्बत की राजधानी ल्हासा से भागकर भारत पहुंचे.
भारत सरकार ने उन्हें शरण दी चीन को ये बात पसंद नहीं आई. कहा जाता है कि 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक बड़ी वजह ये भी थी. दलाई लामा आज भी भारत में रहते हैं. हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलती है. इस सरकार का चुनाव भी होता है. चुनाव में दुनियाभर के तिब्बती शरणार्थी वोटिंग करते हैं. वोट डालने के लिए शरणार्थी तिब्बतियों को रजिस्ट्रेशन करवाना होता है. चुनाव के दौरान तिब्बती लोग अपने राष्ट्रपति को चुनते हैं, जिन्हें सिकयोंग कहा जाता है.
भारत की ही तरह वहां की संसद का कार्यकाल भी 5 सालों का होता है. तिब्बती संसद का मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है. चुनाव में वोट डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार सिर्फ उन तिब्बतियों को होता है, जिनके पास सेंट्रल तिब्बेतन एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा जारी की गई. ग्रीन बुक होती है ये बुक एक पहचान पत्र का काम करती है.
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