जोधपुर.यहां कपास के सूत से दरी, चटाई और आसन बनाए जाते हैं. खास बात यह है कि इनकी डिजाइन में रंग भी धागे से भरे जाते हैं और तो और इलेक्ट्रिक पावर लूम की खटखटाहट की जगह ठेठ परंपरागत तरीके से आज भी जोधपुर के सालवास गांव में ये काम बदस्तूर जारी है. वहीं, आज सालावास की दरी की पहचान देश-दुनिया में है, लेकिन जो दरी बाहर जा रही है और जो सालवास गांव के आसपास हाइवे पर बिकती है, उनमें जमीन आसमान का फर्क है. ऐसा इसलिए क्योंकि हाइवे पर बिक रही ज्यादातर दरी बाहर से यहां आई जाती है. इसकी वजह से पंजा दरी बनाने वाले मूल कारीगरों को काफी नुकसान होता है या फिर यूं कहें कि दरी की कला अब आहिस्ते-आहिस्ते दम तोड़ रही है.
वहीं, दम तोड़ती इस कला के स्थानीय कारीगर मालाराम मुंडल बताते हैं कि ये उनका पुश्तैनी पेशा है. वो वर्षों से इस काम को कर रहे हैं. उन्होंने इसका चरम भी देखा और आज संघर्ष भी कर रहे हैं, लेकिन वे हार नहीं मानेंगे. मालाराम ने अपनी कला के दम पर जिला और राज्य स्तरीय पुरस्कार जीते हैं. उन्होंने छह माह के अथक परिश्रम के बाद एक खास दरी बनाई है, जिसकी कीमत 54 हजार है. हालांकि इसे खरीदने वाले बहुत आए, लेकिन उन्होंने इसे बेचने की बजाय राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित किया. उनका कहना है कि वो इसे इसलिए नहीं बेचे, क्योंकि वो राष्ट्रीय स्तर पर पंजा कला की पहचान को बनाए रखना चाहते हैं और यही वजह है कि उन्होंने अपने नायाब कारीगरी को लोगों को दिखाने के लिए प्रदर्शित किया. साथ ही मालाराम को उम्मीद है कि पीएम विश्वकर्मा योजना से वो और उनके जैसे दूसरे कारीगर आगे लाभान्वित होंगे.
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संघर्ष में कट रही पांचवी पीढ़ी की जिंदगी :मालाराम खुद करीब 40 साल से पंजा दरी बना रहे हैं. उनके साथ उनकी मां, बहू और बेटे भी इस काम में लगे हैं. वो बताते हैं कि उनकी पांचवी पीढ़ी इस काम में लगी है. 90 में यूनेस्को ने जब गांव में प्रोजेक्ट चलाया तो यहां खूब काम हुआ. इलाके में आसानी से दरी के धागे भी मिल जाया करते थे और कारीगरों की खूब कमाई भी होती थी. एक समय ऐसा लगा कि अब उनके दिन सुधर जाएंगे, लेकिन दलालों की एंट्री ने पूरी व्यवस्था को प्रभावित किया. आहिस्ते-आहिस्ते काम करवाने वाले लोगों ने हम से दूरी बनानी शुरू कर दी. साथ ही विदेशी पर्यटक भी दलाल के जरिए दरी खरीदने लगे. इससे सब ठहर गया और आज आलम यह है कि हम संघर्ष कर रहे हैं.