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Special : संकट में बीकानेर की वूलन इंडस्ट्री, झेल रही मंदी की मार... पटरी पर लाने के लिए सहारे की जरूरत - Bikaner woolen industry

रसगुल्ला और नमकीन के लिए पूरी दुनिया में मशहूर बीकानेर अपने ऊन उद्योग के लिए भी पहचान रखता है. कभी एशिया की सबसे बड़ी ऊन मंडी होने का भी दर्जा बीकानेर को हासिल था. लेकिन धीरे-धीरे बीकानेर का उद्योग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के चलते मंदी की चपेट में समा गया. सरकारी स्तर पर अनदेखी और प्रोत्साहन के अभाव में ऊन उद्योग के सामने कई चुनौतियां हैं.

Bikaner woolen industry
बीकानेर का ऊन उद्योग (फोटो : ईटीवी भारत)

By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : Jun 1, 2024, 12:48 PM IST

बीकानेर का ऊन उद्योग (फोटो : ईटीवी भारत)

बीकानेर. व्यापारिक दृष्टि से रसगुल्ला और नमकीन के लिए पूरी दुनिया में मशहूर बीकानेर ऊन उद्योग के लिए भी जाना जाता है. बीकानेर में तैयार होने वाली ऊन से बनने वाले कारपेट दुनिया के कई देशों में निर्यात होते हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में भारतीय ऊन उद्योग का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी देश चीन और तुर्की बन गया है, जिसके चलते यहां के उद्योग के सामने कई चुनौतियां आई हैं. हालांकि पिछले डेढ़ दशक में बीकानेर की वूलन इंडस्ट्री ने मंदी का बुरा दौर देखा है, लेकिन कोरोना के बाद दुनिया भर के देशों ने चीन से आयात और निर्यात एक तरह से बंद कर दिया, जिसके चलते चीन की बजाय दुनिया भर की वूलन इंडस्ट्रीज से जुड़े लोग भारत की तरफ देखने लगे और बीकानेर में ऊन उद्योग में बड़ा बूम आया. लेकिन अब फिर धीरे-धीरे चीन ने अपनी जगह वापस बना ली जिसके चलते भारतीय ऊन उद्योग खासकर बीकानेर की वूलन इंडस्ट्री के लिए हालात फिर चुनौती पूर्ण हो गए हैं.

सरकारी प्रोत्साहन की अनदेखी :वूलन इंडस्ट्रीज से जुड़े कारोबारी सुनील कहते हैं कि इस उद्योग को बचाने के लिए सरकार को आगे आना होगा, क्योंकि बिना सरकारी प्रोत्साहन वूलन इंडस्ट्री आगे नहीं बढ़ सकती. एमएसएमई के नियमों में शिथिलता देने की मांग करते हुए वह कहते हैं कि एमएसएमई में रजिस्टर्ड व्यापारी को 45 दिन में भुगतान अनिवार्य है, जबकि कई बार स्थिति ऐसी नहीं होती है. इसलिए इस दायरे को सरकार को बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए. वहीं उद्योग को लेकर किसी खास तरह का पैकेज होने से यहां की इंडस्ट्री को संजीवनी मिल सकती है.

तनावपूर्ण हालात से भी घटी डिमांड : वूलन कारोबारी सुनील कहते हैं कि यूरोपीय देशों में रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते भी कारपेट की डिमांड कम हुई है, क्योंकि दुनिया के कई देशों में होने वाले निर्यात पर इसका असर पड़ा है. क्योंकि भारतीय कारपेट की डिमांड यूरोपीयन देशों में भी ज्यादा है, लेकिन युद्ध के हालात से एक बारगी डिमांड में कमी आई है.

चारागाह करें विकसित :ऊन कारोबारी अशोक सारडा कहते हैं कि भारतीय उद्योग यानी कि बीकानेर का बाजार पूरी तरह से आयातित ऊन पर निर्भर है. एक समय एशिया की सबसे बड़ी ऊन मंडी होने का दर्जा बीकानेर को प्राप्त था और इसका कारण था कि स्थानीय स्तर पर बीकानेर में ऊन उत्पादन बहुत होता था, लेकिन अब स्थानीय स्तर पर भेड़ों की संख्या धीरे-धीरे बहुत कम हो गई है और ऊन का उत्पादन नहीं होने से आयातित ऊन पर ही पूरी इंडस्ट्री निर्भर है. आयातित ऊन की लागत ज्यादा होने से प्रतिस्पर्धा में हमारा टिकना मुश्किल है. ऐसे में सरकारी स्तर पर गांवों में चारागाह विकसित हो और भेड़ पालकों को सुविधा मिले ताकि उनका उत्पादन बढ़ें.

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ऊन आयात, कारपेट निर्यात : बीकानेर में यूरोप के कई देशों से ऊन का आयात किया जाता है और मुंबई और मुंद्रा पोर्ट से कंटेनर के जरिए ऊन बीकानेर पहुंचती है और वहां ऊन का धागा बनाया जाता है. फिर बीकानेर से ऊन के धागे को उत्तर प्रदेश के भदोही भेजा जाता है, जहां कारपेट बनाया जाता है. हालांकि बीकानेर में भी अब कारपेट की कई फैक्ट्रियां हैं. यह कारपेट दुनिया के कई देशों में निर्यात होता है.

2000 करोड़ का कारोबार :बीकानेर में ऊन उद्योग का हर साल करीब दो हजार करोड़ का टर्न ओवर है, जिसमें करीब 100 इकाइयां हैं. हर फैक्ट्री में 550 से ज्यादा कार्ड मशीन लगी हुई है और हर मशीन में हर रोज 1000 किलो धागे का निर्माण होता है.

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