देहरादून:अगर आपको किसी संस्कृति को जानना हो, समझना हो तो वहां का लोग संगीत सबसे बेहतर माध्यम होता है. लोक कलाकार किसी प्रांत और देश के संस्कृति के सच्चे वाहक होते हैं. उत्तराखंड में भी लोक संस्कृति के वाहक अपने गीतों से यहां की पहचान दर्शाते रहते हैं. इन लोकगायकों में सबसे अग्रणीय हैं नरेंद्र सिंह नेगी.
उत्तराखंड के सांस्कृतिक ध्वजवाहक हैं नरेंद्र सिंह नेगी:अगर आपको उत्तराखंड की संस्कृति को जानना और समझना है तो आप नरेंद्र सिंह नेगी के गीत सुन लीजिए. आप उनके गीतों को सुनकर उत्तराखंड, खासकर राज्य के पहाड़ी अंचल को काफी कुछ समझ जाएंगे. पहाड़ के तीज-त्यौहार, पहाड़ के रीति-रिवाज, मौसम, फसल, जल-जंगल और जमीन सभी के बारे में आपको नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में जानने-समझने को मिल जाएगा.
बॉब डिलन से होती है नरेंद्र सिंह नेगी की तुलना:उत्तराखंड के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की प्रसिद्धि इतनी है कि उनकी तुलना अमेरिका के प्रसिद्ध गायक-गीतकार बॉब डिलन से की जाती है. डिलन के 60 साल के सांस्कृतिक करियर ने उन्हें दुनिया के लोकप्रियक संस्कृति वाहकों में स्थान दिलाया था. इससे आप समझ सकते हैं कि लोक गायकी के क्षेत्र में नरेंद्र सिंह नेगी ने कितना अविस्मरणीय कार्य किया है.
1949 में पौड़ी में जन्मे नरेंद्र सिंह नेगी: उत्तराखंड रत्न नरेंद्र सिंह नेगी का जन्म 12 अगस्त 1949 को पौड़ी जिले के पौड़ी गांव में हुआ था. मां समुद्रा देवी और पिता उमराव सिंह नेगी के घर में जन्मे नरेंद्र सिंह नेगी की संगीत यात्रा को 50 साल पूरे हो चुके हैं. इन 50 सालों में उन्होंने ऐसे-ऐसे गीत लिखे और गाए कि उनके प्रशंसकों ने उन्हें सिर आंखों पर बिठा लिया. उन्होंने जीवन और प्रकृति के साथ लोक व्यवहार, तीज-त्यौहार और राजनीति पर व्यंग्य करते हुए ऐसे-ऐसे गीत गाए कि वो लोगों की जुबान पर चढ़ गए.
नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में है खास बात:बहुत कम लोगों की हिम्मत होती है कि वो सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों पर कलम चला सकें. नरेंद्र सिंह नेगी ने इन दोनों कुरीतियों को समाप्त करने के लिए अपनी गीतों का सहारा लिया. पहाड़ों में मंदिरों में होने वाली पशु बली पर उनका मार्मिक गीत लोगों को इतना पसंद आया कि उत्तराखंड में मंदिरों में अब पशुबलि लगभग बंद ही हो गई है. इस गीत के बोल जो सुन लेता है, उसकी आंखें भर आती हैं.
नि होणू रे नि होणू तेरा, देबि-द्यब्तौंल दैणू भेरा
बागी-बुगठ्योंऊं मारिकी, बागी-बुगठ्योंऊं मारिकी
नि होणी रे नि होणी भलि, देकि निरदोषू की बलि
मंदिरों में ल्वेई चारिकी, मंदिरों में ल्वेई चारिकी
सोनु-चांदी रुप्या नी चांदा, द्यब्ता ल्वे-मांसू नि खांदा
द्यब्ता सच्ची श्रद्धा का भूखा, हाथ जोड़ि परसन्न ह्वे जांदा
इतने सरल और सहज शब्दों में बलि प्रथा का विरोध और समझाइश आपने कहीं नहीं सुनी होगी.
नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में है प्रकृति प्रेम: प्रकृति को नरेंद्र सिंह नेगी ने अलग ही अंदाज में अपने गीत में प्रस्तुत किया. उत्तराखंड के हिमालय और वहां के पर्वत पहाड़ पर जब धूप की किरणें पड़ती हैं तो कैसा दृश्य होता है, वो उनके इस गीत से पता चलता है.
चम-चमा, चम चमा, चम्म चमकी घाम डांड्यूं मा
हिमाली कांठी चांदी की बणि गेनी
शिवा का कैलाशु गाय पैलि-पैलि घाम
सेवा लगाणु आयु बदरी का धाम
आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि सूर्योदय और धूप के खिलने का वर्णन कितनी सुंदरता से किया जा सकता है.
गीतों से पौधरोपण को किया प्रेरित:पहाड़ में अभी हरेला पर्व पर सरकार ने महा वृक्षारोपण अभियान चलाया. नरेंद्र सिंह नेगी आधा दशक पहले ही इसका संदेश दे चुके थे. उनके इस गीत से बढ़कर वृक्षारोपण का संदेश और क्या हो सकता है.
आवा दिदा भुलों आवा
नांगि धरती की ढकावा
डालि वन-वनी लगावा
डालि द्यवतों का नौ की
डालि रोप पुन्य कमावा
नेगी जी के इस गीत ने पहाड़ के लोगों को पौधरोपण कि लिए प्रेरित किया. इसीलिए उत्तराखंड अपने वनों के लिए जाना जाता है. उत्तराखंड की वन संपदा राज्य के लिए धरोहर बन गई.
वनों के कटान के खिलाफ गीत:एक ओर जहां नरेंद्र सिंह नेगी ने पौधरोपण के लिए प्रेरित किया, वहीं उन्होंने लोगों को पेड़ नहीं काटने का संदेश भी दिया. पेड़ नहीं काटने का अनुरोध करता नरेंद्र सिंह नेगी का ये गीत हमेशा प्रेरणादायी रहेगा.
ना काटा तौं डाल्यूं
तौं डाल्यूं न काटा दिदौं, डाल्यूं न काटा
डालि कटेलि त माटि बगेली