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'ब्रांड मोदी' के सामने कड़ी चुनौती, क्या करेंगे मोदी-शाह ? - Brand Modi image - BRAND MODI IMAGE

Modi 3.0 Challanges: लोकसभा चुनाव में भाजपा पूर्ण बहुमत के 272 के आंकड़े से दूर है. ऐसे में सरकार भले ही NDA की बन गई हो, लेकिन सरकार को कई बातों का ध्यान रखना होगा. ब्रांड मोदी के सामने आने वाले पांच साल चुनौतियों से भरे होंगे. इस विषय पर प्रोफेसर प्रवीण मिश्रा का एक विश्लेषण.

Modi, Naidu, Nitish in NDA meeting
मोदी, नायडू, नीतीश कुमार (ANI)

By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jun 13, 2024, 6:12 PM IST

कई बार राजनीति सपाट ढंग से चलती रहती है और लोग उसका जिक्र तक नहीं करते हैं. फिर इस राजनीति में ऐसा कुछ होता है, जिसे लोग दशकों तक याद रखते हैं. 4 जून (2024 लोकसभा चुनाव रिजल्ट) और उसके बाद के दिनों में जो कुछ सामने आया, उसे देखते हुए यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति के ये पांच साल काफी लंबे होने वाले हैं.

रविवार 9 जून को नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. इस बार का दृश्य बदला-बदला प्रतीत हो रहा है. पीएम मोदी की पहली और दूसरी पारी की तुलना में मोदी 3.0 काफी अलग है. पहले और दूसरे कार्यकाल में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता के रथ पर सवार होकर 10 साल का सफर आसानी से तय किया. मगर तीसरे कार्यकाल में मोदी को कैबिनेट में सहयोगी दलों को जगह देनी पड़ रही है.

हालांकि, सहयोगी दलों के साथ सीटों के बंटवारे के बाद भी मोदी ने कोर टीम को बरकरार रखा है. कुल मिलाकर विचार यह है कि, 'सब पहले जैसा ही अच्छा है' वाली कहानी को आगे बढ़ाया जाए. लेकिन वास्तव में, मोदी अपने पूरे राजनीतिक करियर में एक ऐसे मैदान पर खेलेंगे, जिसका उन्हें अनुभव ही नहीं है या फिर यह कह ले वे पूरी तरह से अपरिचित हैं.

ब्रांड मोदी के लिए चैलेंज
नरेंद्र मोदी के राजनीतिक करियर की विशेषता मुख्य रूप से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उनके नेतृत्व से रही है, जहां गठबंधन की राजनीति एक महत्वपूर्ण विशेषता नहीं रही है. उनकी शासन शैली और रणनीतियां मुख्य तौर पर एकदलीय प्रभुत्व के इर्द-गिर्द घूमती रही है. पर 2024 के जनादेश ने परिदृश्य बदल दिया है और यह भारतीय राजनीतिक इतिहास में बेहद महत्वपूर्ण होने जा रहा है. यहां तक ​कि सावधानीपूर्वक तैयार किए गए कैमरा एंगल और शपथ ग्रहण समारोह का वॉयस-ओवर भी नेतृत्व की शारीरिक भाषा में असहजता को छिपाने में विफल रहा.

ऐसे में अब क्या होगा?
ऐसा हो सकता है कि मोदी 3.0 में गठबंधन के सहयोगी अपने हिस्से का हिस्सा चाहेंगे. आशंका है कि, सहयोगियों के सौदेबाजी की ताकत ब्रांड मोदी की विशिष्ट विशेषता को कम कर देगी. अगर ऐसा हुआ तो शक्ल-सूरत और काम-काज में वही मोदी, न दिखने से उनके बड़े पैमाने पर प्रशंसक कम हो सकते हैं. नरेंद्र मोदी के लिए अपनी 'माचो मैन' वाली छवि को बरकरार रखना सबसे बड़ी चुनौती होने वाली है.

उन्होंने 12 वर्षों तक गुजरात राज्य पर पूर्ण बहुमत के साथ शासन किया था. 10 साल से पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र पर राज कर रहे थे. यह पहली बार है, जब भाजपा साधारण बहुमत से दूर है, जो मोदी के लिए पूरी तरह से नया क्षेत्र है.

मोदी की शासन शैली
मोदी की शासन शैली की खासियत केंद्रीकृत निर्णय लेने की विशेषता है, जिसमें अक्सर प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) की भूमिका पर जोर दिया जाता है. यह दृष्टिकोण सिंगल पार्टी की सरकार के लिहाज से काफी अच्छा है, जहां आंतरिक असंतोष को अधिक आसानी से समेटा जा सकता है. 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में भी, नरेंद्र मोदी ने एक ऐसी सरकार का नेतृत्व किया था, जहां भाजपा को गठबंधन सहयोगियों पर भरोसा नहीं था. समर्थकों को अपने नेता की धार्मिक और कठोर छवि पसंद है. वे ऐसे अजेय नेता को पंसद करते हैं जो निर्विवाद रहता है. इन सबके बीच 'बुलडोजर' शब्द हिंदी पट्टी वाले क्षेत्रों में सत्तारूढ़ शासन का एक प्रसिद्ध प्रतीक बनकर उभरा था.

क्या मोदी का वही पुराना अंदाज दिखेगा?
गठबंधन के प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित होने के साथ, यह संभावना नहीं है कि मोदी के लाखों समर्थक अपने पसंदीदा नेता की समान विशेषताओं को देख पाएंगे. गठबंधन की राजनीति में कई दलों के हितों को ध्यान में रखने के लिए व्यापक बातचीत की जरूरत होती है. नरेंद्र मोदी को यह अच्छी तरह से पता होना चाहए कि, दो प्रमुख गठबंधन सहयोगियों के दो नेता, जेडीयू के नीतीश कुमार और टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू ने अतीत में उनके (मोदी) खिलाफ बहुत कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है. ऐसा भी हो सकता है कि, अगर सत्ता के संघर्ष में इंडिया गुट उन्हें कोई बड़ा प्रलोभन की पेशकश करता है, तो वे पलटी मारने में भी संकोच नहीं करेंगे.

ब्रांड मोदी का उदय
देखा जाए तो, ब्रांड नरेंद्र मोदी का उदय 2002 की गुजरात सांप्रदायिक हिंसा में हुआ था. जब गुजरात के मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की जगह नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनाया गया. उस समय बहुत कम लोग नरेंद्र मोदी को जानते थे. मोदी तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के करीबी माने जाते थे. नरेंद्र मोदी ने 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा के आयोजन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसके कारण आखिरकार 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और बीजेपी केंद्र में सत्ता में पहुंची.

संसद में बहुमत खोने का इतिहास पुराना
नेताओं के संसद में अपना बहुमत खोने का भी अपना इतिहास रहा है. इसकी बड़ी वजह कमजोर नेतृत्व का होना है और जिसमें अक्सर महत्वपूर्ण राजनीतिक अस्थिरता और शासन के लिए चुनौतियां शामिल होती हैं. अपने कार्यकाल के आखिर में लोकप्रियता में उल्लेखनीय गिरावट का अनुभव करने वाले राजनीतिक नेता का एक प्रमुख उदाहरण यूनाइटेड किंगडम की पूर्व प्रधान मंत्री (1979-1990) मार्गरेट थैचर हैं. एक बार उन्हें 'द आयरन लेडी' का उपनाम दिया गया था. मार्गरेट थैचर को 1987 में तीसरे कार्यकाल के लिए फिर से चुना गया था. लेकिन यूरोपीय समुदाय पर उनके बढ़ते यूरोसेप्टिक विचारों को उनके मंत्रिमंडल में अन्य लोगों की तरफ से साझा नहीं किया गया था. 1990 में उनके नेतृत्व को चुनौती मिलने के बाद थैचर को प्रधानमंत्री और पार्टी नेता के पद से इस्तीफा देना पड़ा और जॉन मेजर उनके उत्तराधिकारी बने.

क्या करेंगे मोदी-शाह?
अकेले बीजेपी के पास भले ही अपना बहुमत न हो, लेकिन मोदी और शाह के लिए हालात बिल्कुल अपरिचित नहीं हैं. गुजरात में 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 182 में से 99 सीटें मिलीं जो कि बहुमत के आंकड़े से थोड़ा ऊपर था. चुनाव के नतीजे बीजेपी के कंफर्ट जोन में फिट नहीं बैठ रही थी. उस दौरान राज्य में प्रसिद्ध 'गुजरात मॉडल' लागू हुआ और अगले पांच सालों में देखते ही देखते दर्जनों कांग्रेस नेता भाजपा में शामिल हो गए. उस दौरान कई उपचुनाव हुए, जिनमें से अधिकांश सीटें बीजेपी ने जीतीं. जिसका नतीजा यह हुआ कि, 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी की आंकड़ा 99 से बढ़कर 112 सीटों तक पहुंच गई. फिर उसी साल 2022 में हुए पूर्ण विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 156 सीटों के साथ बंपर जीत हासिल की, जो गुजरात के इतिहास में किसी भी पार्टी द्वारा जीती गई सबसे अधिक सीटें हैं.

क्या होगी आंतरिक कलह की वजह?
कांग्रेस शासित राज्यों की संख्या पिछले तीन दशकों में सबसे निचले स्तर पर आ गई है. इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि मोदी और शाह अपनी संख्या में सुधार करने के लिए इस गुजरात मॉडल को केंद्र में लागू कर सकते हैं. अगर वे सफल नहीं हुए, तो सवाल ये है कि क्या पीएम मोदी की जगह किसी और को नेता बनाया जाएगा. क्या भाजपा में आंतरिक विरोध बढ़ेगा, ये सब ऐसे सवाल हैं, जो भविष्य के गर्त में हैं. कुल मिलाकर आप ये भी कह सकते हैं कि ब्रांड मोदी का कड़ा इम्तिहान है.

इस लेख के लेखक, प्रो. प्रवीण मिश्रा कम्युनिकेशन डिजाइन के प्रोफेसर हैं. वे पॉलिटिकल कम्युनिकेशन एंड ब्रांडिंग के विशेषज्ञ हैं. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन (NID), अहमदाबाद से स्नातकोत्तर प्रोफेसर मिश्रा एक पुरस्कार विजेता फिल्म निर्माता हैं और विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में वरिष्ठ पदों पर रहे हैं. वह अब महाराष्ट्र के कर्जत में कला को बढ़ावा देने वाले एक कैफे चलाते हैं.

Disclaimer:यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.

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