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इजराइल के साथ मिसाइल प्रोजेक्ट पर काम करने वाला ईरान, कैसे बना यहूदी देश का दुश्मन? - Israel Iran - ISRAEL IRAN

आज ईरान और इजरायल भले ही एक दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं, लेकिन एक वक्त दोनों देशों में काफी अच्छे रिश्ते हुआ करते थे.

इजराइल और ईरान कैसे दो पक्के दोस्त बने कट्टर दुश्मन?
इजराइल और ईरान कैसे दो पक्के दोस्त बने कट्टर दुश्मन? (ANI)

By ETV Bharat Hindi Team

Published : Oct 4, 2024, 5:22 PM IST

तेहरान: ईरान में बीते मंगलवार को इजराइली आसमान में मिसाइलों की बौछार की, जिससे कट्टर दुश्मन पूरी तरह युद्ध के कगार पर पहुंच गए. हालांकि यह कोई रहस्य नहीं है कि ईरान इजराइल का कट्टर दुश्मन है, लेकिन कई लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि एक समय में दोनों के बीच बहुत करीबी संबंध थे. यहां तक कि दोनों देशों ने एक साझा दुश्मन के खिलाफ सेना भी बनाई थी.

इसके अलावा दोनों देशों ने1970 के दशक में एक गुप्त परियोजना पर सहयोग किया था, जिसे 'प्रोजेक्ट फ्लावर' के नाम से जाना जाता है. मिसाइल टेक्नोलॉजी को संयुक्त रूप से विकसित करने के उद्देश्य से अरबों डॉलर का यह मिशन दो देशों के बीच एक दुर्लभ साझेदारी थी.

ईरान ने इजराइल की संप्रभुता को स्वीकार किया
द्वितीय विश्व युद्ध और उपनिवेशवाद के खत्म होने के बाद जब संयुक्त राष्ट्र ने 1947 में फिलिस्तीन के ब्रिटिश शासनादेश के लिए विभाजन योजना प्रस्तावित की, तो ईरान उन 13 देशों में से एक था, जिन्होंने इसके खिलाफ मतदान किया. इतना ही नहीं 1949 में ईरान ने संयुक्त राष्ट्र में सदस्य के रूप में इजराइल के प्रवेश के खिलाफ भी मतदान किया. इसके बाद 1950 में ईरान ने इजराइल की संप्रभुता को स्वीकार किया. इसके साथ ही तुर्की के बाद ईरान ऐसा करने वाला दूसरा मुस्लिम बहुल देश बन गया.

ईरान और इजराइल की पार्टनरशिप
1953 में कथित सीआईए द्वारा रचित तख्तापलट के बाद ईरान में शाह के शासन की वापसी के बाद ईरान-इजराइल संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. मोहम्मद रजा शाह पहलवी के सत्ता में लौटने के साथ, ईरान और इजराइल ने एक करीबी और बहुआयामी गठबंधन बनाना शुरू कर दिया. ईरान ने 1950 में आधिकारिक तौर पर इजराइल को मान्यता दी. उस समय, ईरान में पश्चिम एशिया में सबसे बड़ी यहूदी आबादी रहती थी.

पहलवी शासन ने इजराइल को एक स्वाभाविक सहयोगी के रूप में देखा, खासकर जमाल अब्देल नासर के मिस्र और बाथिस्ट इराकी गणराज्य जैसे आम विरोधियों के सामने. आपसी लाभ से प्रेरित गठबंधन ने ईरान और इजराइल के बीच आर्थिक, सैन्य और खुफिया सहयोग देखा.उन्होंने कम्युनिस्ट यूएसएसआर को पश्चिम एशिया से बाहर रखने के साझा हितों के आधार पर एक करीबी रिश्ता भी बनाया, क्योंकि दोनों पूंजीवादी अमेरिका द्वारा समर्थित थे.

तेल के बदले हथियार
अरब न्यूज के छपे एक आर्टिकल के अनुसार, नवगठित यहूदी राज्य ने अपना 40 फीसदी तेल ईरान से खरीदा, बदले में हथियारों, तकनीक और कृषि वस्तुओं का व्यापार किया. ईरान से तेल इजराइल की इंडस्ट्री और सैन्य जरूरतों के लिए महत्वपूर्ण था, जबकि शत्रुतापूर्ण अरब देशों ने यहूदी राज्य पर तेल प्रतिबंध लगा रखा था.1968 में स्थापित ईलाट-अश्केलोन पाइपलाइन कंपनी एक महत्वपूर्ण संयुक्त परियोजना थी, जिसने मिस्र के अधीन स्वेज नहर को दरकिनार करते हुए ईरानी तेल को इजराइल तक पहुंचाने की अनुमति दी.

बदले में इजराइल ने 1980 के दशक में इराक के खिलाफ अपने युद्ध में लड़ने के लिए ईरान को आधुनिक सैन्य इक्विपमेंट और हथियार प्रदान किए. टाइम्स ऑफ इजराइल के अनुसार ईरानियों ने इजराइल से एडवांस मिसाइल सिस्टम, एम-40 एंटीटैंक गन, उजी सबमशीन गन और विमान इंजन भी आयात किए. ईरान के शाह ने अपने पड़ोसियों के खिलाफ सैन्य सफलता के कारण इजराइल की प्रशंसा भी की.

मिसाइलों के विकास के लिए फ्लावर प्रोजेक्ट
प्रोजेक्ट फ्लावर का बुनियादी लक्ष्य सतह से सतह पर मार करने वाली मिसाइलों का विकास और संशोधन करना था, जो संभावित रूप से परमाणु वारहेड से लैस होने में सक्षम हों. दोनों देशों ने मिसाइलों के को-प्रोडक्शन के लिए समझौते पर अप्रैल 1977 में तेहरान में हस्ताक्षर किए गए.

हालांकि, परियोजना के परमाणु पहलू को कभी आगे नहीं बढ़ाया गया क्योंकि इजराइलियों को एहसास हुआ कि ईरान के साथ परमाणु हथियार एक खतरा बन सकते हैं. इसके बजाय, ईरानी सेना की पारंपरिक मिसाइल क्षमताओं को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया गया. प्रोजेक्ट फ्लावर के तहत सहयोग 1979 में इस्लामी क्रांति के साथ अचानक रुक गया, जिसने शाह के शासन को उखाड़ फेंका और अयातुल्ला खामेनई के नेतृत्व में इस्लामी गणराज्य की स्थापना की.

ईरान में नया शासन इजराइल और उसके सहयोगी संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रति अत्यधिक शत्रुतापूर्ण था. इसके चलते ईरान और इजराइल के बीच सभी सैन्य सहयोग तुरंत समाप्त हो गए. शाह के सत्ता से बेदखल होने के कुछ समय बाद ही प्रोजेक्ट फ्लावर को सस्पेंड कर दिया गया.

इजराइल और ईरान दोनों ने सद्दाम हुसैन की इराकी सरकार का मुकाबला करना अपने हित में समझा. ब्रिटिश अखबार द ऑब्जर्वर के अनुसार 1980-88 के ईरान-इराक युद्ध के दौरान, इजराइल ने कथित तौर पर सालाना 500 मिलियन डॉलर के हथियार बेचे.

टाइम्स पत्रिका ने उल्लेख किया कि इन सौदों को सुविधाजनक बनाने के लिए, इजराइल ने स्विस बैंक में खाते भी खोले. यरुशलम में इजराइली अधिकारियों को उम्मीद थी कि हथियारों की सप्लाई ईरानी सेना को खुश रखेगी. ईरान-इराक युद्ध के बाद भी कुछ समय तक गुप्त संबंध जारी रहे, लेकिन संबंधों में और भी गिरावट आने लगी थी.

ईरान ने इजराइल को बताया 'छोटा शैतान'
ईरान, जो अब एक धर्मशासित राज्य बन चुका था, जो इजराइल को फिलिस्तीनी भूमि पर कब्जा करने वाला मानता है. ईरान ने इजराइल को 'छोटा शैतान' तक कह दिया, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका को 'बड़ा शैतान' कहा. शिया ईरान मध्य पूर्व का शक्ति केंद्र बनना चाहता था और उसने सुन्नी इस्लाम मानने वाले सऊदी अरब को चुनौती देना शुरू कर दिया. इसने इजराइल और अमेरिका दोनों को क्षेत्रीय मामलों में हस्तक्षेप करने वाला माना.

नई ईरानी सरकार ने इजराइल के साथ सभी राजनयिक संबंध तोड़ दिए और देश ने फिलिस्तीनी और अन्य इजराइल विरोधी आंदोलनों का सक्रिय रूप से समर्थन करना शुरू कर दिया. इस अवधि में संबंधों में काफी गिरावट देखी गई, दोनों पक्ष बयानबाजी और प्रॉक्सी संघर्ष में उलझे रहे. बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, इसी अवधि में ईरान ने शिया लेबनानी तत्वों का समर्थन करना शुरू किया, जिसने बाद में हिजबुल्लाह का रूप ले लिया.

खाड़ी युद्ध के बाद खुलकर सामने आई दुश्मनी
खाड़ी युद्ध के बाद ईरान और इजराइल के बीच खुली दुश्मनी के युग की शुरुआत हुई. सोवियत संघ के पतन और एकमात्र महाशक्ति के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका के उदय ने इस क्षेत्र को और अधिक ध्रुवीकृत कर दिया. 1980 के दशक में शुरू हुआ ईरान का परमाणु कार्यक्रम 1990 के दशक से विवाद का एक प्रमुख मुद्दा बन गया. संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ इजराइल ने जोर देकर कहा कि ईरान अपनी परमाणु महत्वाकांक्षाओं को छोड़ दे, क्योंकि वे क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करते हैं. अमेरिका और उसके पश्चिम एशियाई सहयोगी इजराइल के लिए, ईरान अब एक कट्टरपंथी निरंकुश व्यक्ति, अयातुल्ला द्वारा शासित देश बन चुका था.

रूओल्लाह खुमैनी के बाद उनके उत्तराधिकारी अयातुल्ला अली खामेनेई को यह कड़वी लड़ाई विरासत में मिली. खुले दुश्मनी के कारण कई टकराव हुए, जिसमें गुप्त ऑपरेशन और एक-दूसरे के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की सार्वजनिक धमकियां शामिल हैं. इजराइल और ईरान ने मौखिक टकराव और प्रॉक्सी युद्ध शुरू कर दिए. ईरान ने इजराइल के पड़ोस में कम से कम आधा दर्जन प्रॉक्सी युद्ध किए, जबकि यहूदी राज्य ने अत्याधुनिक तकनीक और खुफिया जानकारी का इस्तेमाल करके उनका मुकाबला किया.

सीरियाई गृहयुद्ध उनके प्रॉक्सी वॉर के लिए एक युद्ध का मैदान बन गया, जिसमें ईरान ने सीरियाई सरकार का समर्थन किया और इजराइल ने सीरिया में ईरानी ठिकानों पर हवाई हमले किए. 2011 में ईरान समर्थित हिजबुल्लाह के हस्तक्षेप ने बशर अल-असद के शासन को बचाया.

मंगलवार को ईरान द्वारा इजराइल पर मिसाइल से किया गया हमला, हिजबुल्लाह प्रमुख हसन नसरल्लाह, ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स कमांडर अब्बास निलफोरुशन और हमास नेता इस्माइल हानिया सहित उच्च पदस्थ प्रॉक्सी नेताओं पर इजरायल द्वारा किए गए हमलों के जवाब में, इस चल रही दुश्मनी का लेटेस्ट उदाहरण है.

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