नई दिल्ली: दिल्ली सरकार द्वारा संचालित गुरु नानक आई सेंटर में शनिवार को आंखों से संबंधित बीमारियों के बारे में लोगों जागरूक करने के लिए एक कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस कार्यशाला में अस्पताल में कार्यरत जूनियर रेजिडेंट और सीनियर रेजीडेंट डॉक्टरों को अलग-अलग रिसर्च पेपर और अध्ययनों में सामने आई जानकारी को दूसरे लोगों तक पहुंचाने के बारे में भी जागरूक किया गया. इस दौरान अस्पताल की चिकित्सा निदेशक डॉक्टर कीर्ति सिंह ने कहा कि इस समय छोटे बच्चों में या कहें स्कूली बच्चों में मायोपिया की समस्या बहुत अधिक देखने को मिल रही है. मायोपिया एक नेत्र विकार है. इस पर ध्यान देने की जरूरत है.
उन्होंने कहा कि अभी हम दिल्ली के सरकारी स्कूलों के बच्चों के साथ एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. हम सरकारी स्कूलों के 9 से 11 साल की उम्र के बच्चों की आंखों की जांच कर रहे हैं और आंखों की जांच करने पर उनके चश्मा का नंबर कम आता है तो उनको हॉस्पिटल से फ्री चश्मा दिया जा रहा है. डॉक्टर कीर्ति सिंह ने कहा कि फ्री चश्मा देने का काम बहुत सारी संस्थाएं कर रहे हैं, लेकिन, यह समस्या का समाधान नहीं है. हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि बच्चों की नजर को कम होने से या मायोपिया होने से बचाया जाए.
मोबाइल और टीवी से बच्चों को रखें दूर
डॉ कीर्ति सिंह ने बताया कि इस समय देखने में आ रहा है कि छोटे बच्चों को लोग अक्सर हाथों में मोबाइल दे देते हैं या बच्चा ज्यादा परेशान करता है तो उसको संभालने के लिए टीवी चला देते हैं. ऐसे में बच्चे कई घंटे तक मोबाइल चलाते रहते हैं और टीवी देखते हैं, जिससे कि उनका स्क्रीन टाइम बढ़ जाता है. इसी तरह जो बच्चे स्कूलों में पढ़ाई करते हैं उनका होमवर्क कई बार टीचरों के द्वारा मोबाइल पर भेजा जाता है तो मोबाइल में देखकर भी बच्चे होमवर्क करते हैं. जिन घरों में कंप्यूटर और लैपटॉप की सुविधा उपलब्ध है तो बच्चे लैपटॉप कंप्यूटर पर भी काम करते हैं, जिससे उनका स्क्रीन टाइम बढ़ता है और नजर कमजोर होने लगती है. इस समस्या का समाधान करने के लिए हमें बच्चों के हाथों में मोबाइल देना बंद करना होगा और उनका टीवी देखने से भी रोकना होगा. इसका सबसे अच्छा उपाय है कि हम बच्चों को अधिक समय घर में रखने की बजाय उनको बाहर घूमने व खेलने का मौका दें, जिससे बच्चे का दूसरे बच्चों के साथ भी इंटरेक्शन होता है और बच्चा मोबाइल व टीवी से भी दूर रहता है. उसका दिमाग भी खुलेगा. अधिक मोबाइल और टीवी देखने से बच्चों को आंखों के साथ ही मानसिक समस्या भी सामने आ रही है.
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गुरु नानक आई केयर की चिकित्सा निदेशक ने बताया कि बच्चों और बड़ों का जब स्क्रीन टाइम बहुत अधिक होता है तो उनकी आंखों में खुसकी हो जाती है. आंखों की नसें सूखने लगती हैं, जिससे नजर कम होने लगती है. ऐसे में आंखों की जांच करने पर जब लगे कि चश्मे की जरूरत है तो उसका चश्मा बनवाना चाहिए. अगर किसी बच्चे को 12-15 साल की उम्र में चश्मे की जरूरत थी और उसका 18 साल तक चश्मा नहीं लगाया तो 18 साल के बाद उसकी समस्या अधिक बढ़ सकती है. क्योंकि 18 साल तक बच्चे की रोशनी वाली जो नसें हैं वह पूरी तरह विकसित हो जाती हैं. इसलिए चश्मे का असर लिमिटेड होता है और नंबर भी ज्यादा बढ़ जाता है.
कंप्यूटर और लैपटॉप पर काम करने का चलन
डॉ कीर्ति सिंह ने बताया की कॉरपोरेट जॉब में आजकल कंप्यूटर और लैपटॉप पर काम करने का चलन हो गया है. ऐसे में कंप्यूटर और लैपटॉप पर काम करते समय पलकों को झपकाते रहें. लगातार अधिक समय तक काम न करें. बीच में ब्रेक लेते रहें बीच में पानी पीते रहें. चाय पी लें. स्क्रीन से थोड़ी-थोड़ी देर बाद अपना ध्यान इधर-उधर करते रहें, जिससे कि आंखों पर ज्यादा असर न पड़े. उन्होंने बताया कि शहरों में लोगों के पास छोटे-छोटे घर हैं तो अधिकतर लोग अपने बेडरूम में टीवी लगवा लेते हैं, जिससे कि जब बेड पर बैठकर टीवी देखते हैं तो टीवी और बेड की दूरी काफी कम हो जाती है. ऐसे में जब बच्चा टीवी देखता है तो उसकी आंखों पर ज्यादा असर पड़ता है. इसलिए कोशिश करें टीवी ऐसी जगह लगे जहां से टीवी देखने पर उसकी दूरी 6 से 7 फीट रहनी चाहिए. 2 से 3 साल के बच्चे को कोशिश करें कि मोबाइल और टीवी से पूरी तरह दूर रखा जाए. अगर दूर नहीं रख पाते हैं तो ज्यादा से ज्यादा 30 मिनट तक ही बच्चे को टीवी या मोबाइल देखने दें.
क्या मायोपिया का स्थाई इलाज
कई देशों में ऐसी स्टडी आई हैं. अब कुछ ड्रॉप भी आने शुरू हुए हैं. उन आई ड्रॉप को बच्चों की आंखों में डालने से उनकी पास की नजर में थोड़ा सा सुधार हो रहा है. हालांकि, अगर बच्चे की नजर ब्लर हो चुकी है तो उस पर यह ड्रॉप कामयाब नहीं होता है. उसके लिए चश्मा ही एक विकल्प होता है. लेकिन मायोपिया अगर बच्चे को हो जाता है और उसको चश्मे की जरूरत हो तभी उसको चश्मा लगवाना चाहिए. क्योंकि 15 साल की उम्र के बाद बच्चों के दिमाग में जो ऑप्टिकल नस होती है वह पूरी तरह विकसित हो जाती है. 18 साल की उम्र होने पर जब चश्मा लगाया जाता है तो वह इतना अधिक उपयोगी नहीं रहता है. क्योंकि जो नस विकसित हो चुकी होती है उस पर चश्मे का ज्यादा असर नहीं होता है.
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