हैदराबाद:सियाचिन ग्लेशियर पर फंसे चार भारतीय सैनिकों की जिंदगी पर आधारित है 'सियाचिन: ए फिक्शनल टेल ऑफ सर्वाइवल एंड होप'. इस ड्रामा प्ले को दर्शक बहुत पसंद कर रहे हैं, इसीलिए थिएटर खचाखच भरे हुए हैं. कहानी में एक भयानक बर्फीले तूफान में सब कुछ बह जाने के बाद बेस से किसी तरह का संपर्क नहीं होता, लेकिन वहां फंसे हुए सैनिकों को उम्मीद है कि वे बाहर जरूर निकलेंगे. स्क्रीन और स्टेज के दिग्गज मकरंद देशपांडे द्वारा निर्देशित, आदित्य रावल द्वारा लिखी हुई यह कहानी आपको सैनिकों की जिंदगी के संघर्षों से रूबरू कराती है, लेकिन इससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या सच में इस संघर्ष की जरुरत है?
आदित्य रावल ने नाटक के लिए इतना जटिल सब्जेक्ट क्यों चुना?
'मुझे हमेशा से जियो पॉलीटिक्स और इतिहास में दिलचस्पी रही है और मेरे लिए सियाचिन एक बेहतरीन सब्जेक्ट रहा है, क्योंकि ये एक ऐसी जगह है, जहां आम लोग नहीं रह सकते. 21,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस जगह पर भारत पाकिस्तान युद्ध विराम के बाद से एक गोली भी नहीं चली, लेकिन यहां सैनिक गोलियों से नहीं चोटी पर खराब मौसम के कारण जान गंवा देते हैं. हालांकि दोनों देशों ने इस ग्लेशियर से अपने सैनिक हटाने की इच्छा जाहिर की है, लेकिन एक दूसरे पर भरोसे की कमी के चलते ऐसा हो नहीं सका. रावल आगे कहते हैं, 'हमारे नाटक को देखने आए बहुत से सेना के लोगों ने इस रिसर्च की सराहना की है, बेस कैंप की प्रैक्टिस, भाषा, बीमारी, हाथ का नीला हो जाना जैसी बेसिक चीजें दिखाती है कि रिसर्च अच्छी की है.
बर्फीले तूफान के बाद जिंदगी की जंग
लेफ्टिनेंट तन्मय बोस का किरदार निभाने वाले जहान कपूर कहते हैं, 'हमारी कहानी में वे चार हैं और कहानी उनके वहां उन्हें भेजे जाने के छह महीने बाद शुरू होती है, आम तौर पर, तीन महीने का टाइम होता है और वे बेस कैंप में वापस आ जाते हैं और फिर अपने दूसरे कमीशन या जो भी ड्यूटी उन्हें करनी होती है, उसके लिए जाते हैं, लेकिन एक बार में तीन महीने में ग्लेशियर आउटपोस्ट पर तैनाती होती है, क्योंकि इससे ज्यादा समय तक वहां जिंदा रहना बहुत मुश्किल है. लेकिन दुर्भाग्य से, तीन महीने पूरे होने के बाद, एक भयानक बर्फीला तूफान आता है और सब कुछ उजड़ जाता है. इस तूफान में चारों बच तो जाते हैं, लेकिन वे सोच नहीं पाते कि अब क्या करे, नौकरी छोड़ दें या अपने कर्तव्य को निभाए.