बगहा:बिहार की प्राचीन कलाओं में से एक सिक्की कला लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है, लेकिन बिहार के बगहा की आदिवासी महिलाओं के प्रयास से यह कला अब अपनी पुरानी रौनक में लौट रही है. सिक्की कला के जरिए आदिवासी इलाके की महिलाएं ना सिर्फ अपने सांस्कृतिक विरासत को बचा रही हैं बल्कि इस हुनर का उपयोग कर आर्थिक रूप से एक हद तक आत्मनिर्भर भी बन रही हैं.
सिक्की कला से ग्रामीण महिलाएं बन रहीं आत्मनिर्भर: लुप्त होती सिक्की कला के जरिए आदिवासी महिलाएं अपना तकदीर लिख रहीं हैं. इनके बनाए उत्पादों की डिमांड विदेशों तक है क्योंकि वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के भ्रमण पर आने वाले पर्यटकों को सिक्की कला के उत्पाद खूब भाते हैं. सैकड़ों महिलाएं सिक्की कला से मौनी, पौती, झप्पा, गुलमा, सजी, बास्केट, आभूषण, खिलौना, पंखा, चटाई सहित घर में सजावट वाली कई प्रकार की वस्तुओं का निर्माण कर अच्छे कीमतों पर बेच रहीं हैं.
घास से बनने के कारण माना जाता है शुभ: दरअसल बिहार की बाढ़ वाली नदियों के किनारे उगने वाले एक विशेष प्रकार की घास यानी मूंज और कुश का उपयोग कर महिलाएं रंग बिरंगी मौनी, डलिया, पंखा, पौती, पेटारी, सिकौती, सिंहोरा इत्यादि चीजें बनाती हैं, जिसकी डिमांड विदेशों तक है. घास से बने सामान शुभ माने जाते हैं इसलिए इनका प्रयोग शुभ कामों में करने की परंपरा चली आ रही है. नीलम देवी बताती हैं कि नदी और खेत के बांध किनारे हमलोग मूंज और कुश उपजाते हैं. इससे बांध भी मजबूत रहता है और इसका उपयोग कर हम रंग बिरंगी उत्पाद बनाते हैं.
"सितंबर और अक्टूबर माह में मूंज को काटकर सुखाया जाता है. फिर उसे पतला सीक के आकार में काटकर उसको अलग अलग रंगों में रंगा जाता है. जिससे महिलाएं दौरी, मोना, चटाई, पंखा और फूल डाली जैसे उत्पाद बनाती हैं. इस काम में 150 के करीब महिलाएं लगी हुई हैं."-नीलम देवी, सिक्की कला निर्माता
माता सीता को विदाई के समय दी गई थी सिक्की की बनी सिंहौरा: बता दें कि सिक्की कला का इतिहास काफी पुराना है. तकरीबन 400 वर्ष पहले से ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं इस कला में निपुण रही हैं. पुराणों में भी इस बात का जिक्र है की राजा जनक ने अपनी पुत्री वैदेही (माता सीता) को विदाई के समय सिक्की कला की सिंहौरा, डलिया और दौरी इत्यादि बनाकर दिया था. आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बेटी की विदाई के दौरान सिक्की से बने उत्पादों को देने की परंपरा चली आ रही है.